shabd-logo

बारहवीं फेल

15 अक्टूबर 2021

37 बार देखा गया 37
दसवीं की परीक्षा का परिणाम आ चुका था।
" मंगतराम, दीपनारायण, दुखनी और रामरति देवी भी पास हो गई हैं" ---  प्रिंसिपल जी ने मोबाइल में देख कर बताया तो बच्चे और बड़े खुशी से झूम उठे। मेरी आंखों में तो खुशी के मारे आंसू आ गए।
" हम तो पहले ही जानते थे कि गुदरिया बचवा की मेहनत जरूर रंग लाएगी। आज पहली बार हमारे समाज के बच्चे इतना पढ़ाई कर पाए हैं। और रामरतिया की सास तो खुशी से फूली नहीं समा रही है। सारे गांव में एक उसकी पतोहू हीं मेट्रिक पास हो गई है। गुदरिया भले ही 12वीं फेल है, मगर उसने जो कुछ हमारे समाज के लिए किया है उतना तो कउनो नेता अधिकारी ने भी नहीं किया आज तक...." ----  बड़के काका तो अपनी ही हीं रौ में बोले चले जा रहे थे। मगर मेरे दिमाग में एक ही बात बार-बार गूंज रही थी ...12वीं फेल... यह शब्द हुआ खंजर था जिसे मैंने स्वयं अपने जेहन में चुभोया हुआ था। लेकिन क्या यह मेरी खुशी थी ...या मजबूरी....?
                मैं 5 बरस का था जब माई- बाबू मुझे लेकर दिल्ली चले गए। बाबू को यहां के पारंपरिक काम, सूप-दउडा़ बीनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो इस छुआछूत वाले माहौल से बाहर निकलकर खूब पैसा कमाना चाहते थे। साथ हीं मुझे पढ़ा लिखा कर बड़ा आदमी बनाना चाहते थे।
 वहां जाकर बाबू ने दिहाड़ी मजदूर का काम शुरु किया। नाले के किनारे एक झोपड़ी थी, जिसमें दो और परिवार रहते थे। ₹50 महीने के देने पड़ते थे ,रहने और खाने के लिए। कीड़ों से भी बदतर जिंदगी थी। मगर बाबू हार मान कर लौटने वालों में नहीं थे । एक साल तक ऐसे ही नारकीय जीवन बिताने के बाद बाबू ने अपने बचत के पैसों और कुछ लोगों से उधार मांग कर एक ऑटो रिक्शा खरीद लिया। अलग से एक किराए का घर भी ले लिया जहां कम से कम सांस लेने की जगह थी। पास के ही एक सरकारी स्कूल में मेरा दाखिला भी करवा दिया। वहां उन्होंने मेरा नाम बदलकर गुदरिया की जगह गुरुचरण लिखवा दिया।
                 मगर नाम बदलने से क्या होता है। माई बाबू की शक्ल -ओ-सूरत लेकर पैदा हुआ मैं दुनिया की नजरों में बेहद बदसूरत और घिनौना था। स्कूल के लड़के मुझे कई उपनामों से चिढ़ाते और मुझ से दूरी बनाकर रखते थे। खैर ! मैंने इसी को अपनी नियति माना और बाबू के सपनों को पूरा करने की कोशिश में जी जान से जुट गया। साल-दर-साल में स्कूल की परीक्षाएं पास करता जा रहा था, और साथ ही सामाजिक वर्ण व्यवस्था की मानसिकताओं की परीक्षा में भी उत्तीर्ण होने की प्रबल कोशिश करता था। परंतु ना जाने क्यों उनकी प्रश्न पत्रों के जवाब में अन्य कई प्रश्न पत्र मेरे दिलो-दिमाग में गूंजने लगते थे, और मैं व्यथित हो उठता था। मेरा यह मानसिक उत्पीड़न है मेरी पढ़ाई में बाधा बनने लगा । 11वीं में नामांकन के बाद से ही मेरा मन पढ़ाई से उचटने लगा। मन में समाज के प्रति एक विद्रोह पनपने लगा। पढ़ाई दिन पर दिन पहाड़ बनता जा रहा था। घर की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि मैं कहीं ट्यूशन या कोचिंग पढ़ पाता। घर में  या आस-पास कोई मार्गदर्शक नहीं था । माई बाबू के लिए तो मैं उनका भगवान था... उनका तारनहार । वह हर समय मेरे समक्ष अपनी उम्मीदों का आंचल पसारे रहते और मैं खुद को आत्मग्लानि से सराबोर करता रहता है। शायद यही कारण था कि मैं उनकी उम्मीदों पर पानी फेरता हुआ 12वीं में फेल हो गया। माई बाबू को तो जैसे सदमा लग गया। कुछ भी नहीं कहा उन्होंने। मुझे तो लगा था कि बहुत डांट डपट करेंगे मगर उन्होंने तो हंसना बोलना तक छोड़ दिया था। मेरी तरफ देखते भी नहीं थे। माई भी बस जरूरत भर ही बातें करती थी । मुझे लगता कि घर जैसे कारखाना बन गया हो , और हम सब मशीन । सारे काम यंत्रवत हो रहे थे। मगर ऐसा नहीं था । शायद कहीं ना कहीं एक लावा सुलग रहा था । उस दिन जब बाबू ने मुझसे 12 वीं परीक्षा की पुनः तैयारी करने को कहा तो मैंने ना सिर्फ मना कर दिया बल्कि अपने अंदर के पिघलते हुए लावे को भी उड़ेल कर रख दिया।
---"  मुझे नहीं करनी पढ़ाई... नहीं बनना कोई बड़ा आदमी... मुझे अपने घर समाज के बीच रहना है। अपने आप से भागकर हम कहां जाएंगे ? हजारों की भीड़ से निकलकर यदि मैं आगे बढ़ भी गया तो वहां मेरे आसपास ऐसे लोग ही होंगे जिनके सामने मैं "अलग" ही रहूंगा। पीठ पीछे  खिल्ली उड़ाते उनकी नजरें हमेशा मेरे पीठ पर चुभती रहेंगी। लोग मुझे मेरी औकात दिखाने को सदैव तत्पर रहेंगे । मैं... सिर्फ मैं ही नहीं आगे बढ़ना चाहता बाबू। मुझे अपने समाज, अपनी परंपरा और अपनी पहचान के साथ आगे बढ़ना है। उन सब को आगे बढ़ाना है। मैं सबको उनकी नजरों में उनको बड़ा आदमी बनाना चाहता हूं । एक मानसिकता जो सदियों से हम सब ढोते आ रहे हैं... उन से पीछा छुड़ाना चाहता हूं। जब हम कोई गलत काम नही कर रहें, तो फिर हम अपने काम से... अपने समाज से क्यों भागे .? हम उन सब को बुलंदियों तक क्यों नहीं पहुंचा सकते ?
" काहे हम लोगों की मेहनत पर पानी फेर रहा है गुदरी... हम और तेरे बाबू दिन-रात मर खप के क्या यही सब सुनने के लिए पढ़ा रहे थे तुम को ? जिस नरक से हम तुमको निकाल कर लाए हैं फिर वही नरक में जा कर क्या करोगे बचवा ?" 
         " हम उस नर्क को स्वर्ग बनाना चाहते हैं माई ..ताकि, फिर किसी गुदरिया और उसके माई-बाबू को भटकने का जरूरत नहीं पड़े।"
         " इसको अब कुछ कहने का जरूरत नहीं है गुदरी की माई.... इसको जो करना है करे। गांव जाना चाहता है तो जाने दे मगर हम लोग वहां नहीं जाएंगे देखते हैं अकेले क्या कर लेता है यह उस गांव में जाकर। चार दिन में ही लौट आएगा।"
            बाबू की आंखों में क्रोध का लाली पन था तो, माई की आंखों में बेबसी और लाचारी के आंसू । मगर मैंने भी कुछ ठान लिया था, इसीलिए सब को नजरअंदाज कर के लौट आया यहां अपनी जड़ों में।
 बड़के काका तब हम बहुत खुश हुए थे, जब मैंने उनसे कहा कि मैं दउड़ा बीनने का काम सीखना चाहता हूं।
"---- अरे बचवा ! हम जरुर सिखाएंगे तुमको । सारे गांव को हम ही तो सिखाएं हैं। तुम्हारे बाप को भी सिखाने का कोशिश किए मगर, उसको कभी मन नहीं लगा पांच-छौ महीना बाद छठ का परब आने वाला है। अगर अभी से मेहनत करोगे तो अच्छा पैसा कमा लोगे परब मे।"
           " हम तो आज हीं से सीखने को तैयार हैं काका।"
            " आज से नहीं 2 दिन बाद। कल रामरतिया का बियाह है। उस को निपटा दें ,फिर तुम को सिखाने का काम करेंगे।"
" रामरति की शादी ? वह तो हमसे दो -चार साल छोटी है ।"---- मैंने दिमाग पे जोर डालते हुए कहा।
"अरे बेटी जात है। सर पर बोझ कब तक रखें। बिना बाप की बेटी है। हम अगर मर- मरा गए तो उसकी विधवा माई क्या क्या करेगी अकेले बेचारी । बगल के गांव में ही एक अच्छा लड़का मिल गया तो दिन पक्का कर दिए। अब तुम आ गए हो , शहर के पढ़े-लिखे हो तो अपनी भतीजी की बियाह में स्वागत-सतकार अच्छे से देख लेना। खुस हो जाएंगे लड़का वाले लोग।"
         मुझे अच्छी तरह याद है। रामरति बहुत छोटी थी तभी भैया मुंबई गए थे अपने कुछ दोस्तों के साथ काम करने। मगर साल भी नहीं लगा की उनके मरने की खबर आ गई। ना जाने कौन सी बीमारी ने घेर लिया कि दो-चार दिन के बुखार में ही चल बसे । चाचा के पास इतने रुपए नहीं थे कि वह मुंबई जा कर भैया की लाश को गांव की मिट्टी में जलाते । तब से रामरति ही उनके जीने का सहारा थी । मगर थी तो बेटी हीं इसीलिए बोझ बन गई शायद।
          धीरे-धीरे पखवाड़ा दर पखवाड़ा बीतने लगा। रामरति अपने ससुराल चली गई। उसका पति भी काम काज की तलाश में कोलकाता चला गया। मैं भी सूप-दउड़ा का काम सीखने में मेहनत करने लगा। बांस काटकर लाना और उसे छीलना सबसे मेहनत का काम होता था मेरे लिए। शारीरिक मेहनत की आदत जो नहीं थी। लेकिन बड़के काका की नजरों में मैं अच्छा सीख रहा था। फिर भी ना जाने क्यों मन के किसी कोने में असंतुष्टि का भाव सिर उठाता रहता था। अपने भाई बंधुओं को काम के लिए दर दर भटकते देखना, अपनी कला संस्कृति को गर्त में डूबते देखना, चारों ओर मुझे अव्यवस्था और गंदगी ही दिखाई देती। इन सब के पीछे कारण ढूंढने की कोशिश करता तो शिक्षा की सबसे बड़ी कमी पाता। सिर्फ किताबी  शिक्षा ही नहीं इन्हें इनकी मानसिकता की भी शिक्षा देनी आवश्यक थी। कभी-कभी लगता है कि मेरा फैसला कहीं गलत तो नहीं। मैं अपने समाज के लिए कुछ कर भी पाऊंगा या नहीं । मैं तो खुद ही असहाय हूं। इनकी मदद के लिए शुरुआत करूं भी तो कैसे?
        छठ का त्यौहार बीता, हाथ में कुछ रुपए आए तो मन को थोड़ी बहुत सांत्वना मिली। दिल किया कि शहर जाकर माई बाबू को बता आऊं। मगर उसी दिन रामरति का अपनी सास से झगड़ा हो गया और वह रोती बिलखती घर आ गई। बड़के काका और भाभी बहुत परेशान हो गए थे। ऐसे में उनको छोड़कर कहीं जाना मुझे उचित नहीं लगा। 
मैंने झगड़े का कारण जानने के लिए प्यार से रामरति के सिर पर हाथ रखा तो वह बिलख उठी--- " चाचा मांजी चाहती है कि हम भी उनके तरह लोगों के घरों में साफ-सफाई का काम करें... मैला ढोएं।"
      " हां ,तो काहे नहीं करेगी ? हमारे समाज के पुरखे लोग यही तो करते आए हैं। तू क्या झारखंड की महारानी है जो नहीं करेगी।"--- भाभी ने उस पर झल्लाते हुए कहा।
       " तुम शांत हो जाओ भाभी , हम समझाते हैं इसको।"---- मैंने भाभी को चुप रहने का इशारा किया।
" तू क्या चाहती है रामरति... हमको बता।"
"हम तो अच्छे से अपने घर परिवार में रहना चाहते हैं, चाचा.. बस और कुछ नहीं"
" तू पढ़ेगी ..? अगर मैं तुझे पढ़ाऊंगा तो..?"
" ई का कह रहे हो गुदरी बबुआ ?"--- भाभी ने विस्मय  से आंखें बड़ी करते हुए मुझे घूरा।
 "क्यों , पांचवी तक की पढ़ाई तो की है ना इसने । मैं इसे आगे पढ़ाउंगा ताकि यह भविष्य में अपने बच्चों को अनपढ़ ना रख सके।"
" हम पढ़ेंगे चाचा, मगर इसके लिए तो बहुत पैसा लगेगा और हमारे पास तो..."
" तू उसकी चिंता मत कर । कल से दो-चार और ऐसे बच्चों को इकट्ठा कर जो पढ़ना चाहते हों । बाकी का इंतजाम हम देखते हैं।"
             मैंने देखा कि भाभी की आंखों में आश्चर्य तो बड़के काका और रामरति के चेहरे पर संतुष्टि थी।
 अगले दिन सुबह सुबह ही रामरति मंगतराम और दीपनारायण को लेकर आ गई। मैंने भी शाम को कुछ किताबें और पढ़ाई की सामग्री खरीद ली थी। मैंने देखा कि उन सबके अंदर पढ़ने की ललक तो थी, मगर आजीविका चलाने के मारे उन्होंने शिक्षा को गैर जरूरी समझ कर छोड़ दिया था।
       " देखो रामरति, हम यहां तुम लोगों को पढ़ाएंगे जरूर... मगर इतना समझ लो कि हम कोई स्कूल नहीं खोल रहे हैं कि, यहां पढ़-लिखकर तुम लोगों को नौकरी मिल जाएगी। हम तो बस  इसलिए पढ़ाना चाहते हैं कि तुम लोग इस अंधेरी दुनिया से निकलकर ज्ञान की रोशनी में देखो। अपने चारों ओर की चीज़ों को समझो। शिक्षा का महत्व समझो ताकि अपने आने वाली पीढ़ी को शिक्षित कर सको।"
         " हम लोग भी यही सोच कर तो आए हैं भैया"---- मंगतराम ने कहा तो मुझे थोड़ी तसल्ली हुई।क्योंकि मै किसी को भी झूठे सपने नही दिखाना चाहता था। मगर मैं पढ़ाने के साथ साथ उन सबकी आजीविका भी चलाना चाहता था। ताकि उनको और उनके परिवार वालों को शिक्षा बोझ ना लगे।
 मैंने देखा था कि जंगल में कई ऐसे पेड़ पौधे एवं फूल पत्तियां हैं जैसे कलात्मक चीजें बनाई जा सकती हैं। यह बातें जब मैंने उन लोगों को बताई, तो पता चला कि वह लोग तो इस कारीगरी में बहुत ही आगे हैं। बस फिर क्या था, अब हम सब  मिलकर बांस और जंगली पेड़ पौधों से कई सजावटी वस्तुएं बनाने लगे। रामरति की बनाई बांसुरी से तो इतना मधुर संगीत निकलता कि कहना हीं क्या। मंगतराम और दीपनारायण तो बांस की जड़ों से कई प्रकार की सजावटी एवं उपयोगी चीजें बना लेते थे। मेरे कहने की देर थी कि, एक हफ्ते के अंदर सब ने मिलकर कई सजावटी चीजें बना डाली।
         शादी विवाह के लिए एक से बढ़कर एक नक्काशीदार डाला-मउड़(एक विशेष प्रकार की टोपी जिसे दूल्हा शादी में पहनता है) चटाई,या बांस के छोटे-छोटे टुकड़ों को अलग-अलग आकार देकर और रंग कर बनाए गए जेवर तो बहुत ही मनमोहक लग रहे थे। कई चीजें दो खेती में काम आने वाली भी थी।
      " चाचा , इन सब चीजों को बनाने में हम सब पारंगत हैं। और हमारा मन भी बहुत लगता है। लेकिन इस गांव में यह सब चीजें कोई नहीं खरीदता। शहर आने जाने के लिए हमारे पास साधन एवं समय दोनों की कमी है। इसलिए हम लोग यह सब ज्यादा नहीं बनाते। बस कभी-कभार जब अगल-बगल के गांव में मेला लगता है तो बना कर बेचते हैं।"---- रामरति ने उदास स्वर में कहा।
    " और वह भी बहुत सस्ते में... बस लागत निकल जाता है समझो, मुनाफा ना के बराबर ।"-----मुलिया बोली।
      " इस गांव के मुखिया सरपंच कुछ नहीं करते क्या हमारे गांव वालों के लिए ?"--- मैंने आहट मन से पूछा।
     " गुदरी बिटवा, मुखिया सरपंच बड़े लोग हैं । हमारी इतनी औकात कहां कि उनसे कुछ सवाल कर सके। हम तो उनके देहरी पर पैर भी रख देते हैं तो वह गंगाजल से धुलवाते हैं।"----- बड़के काका ने हताश स्वर मे कहा।
" अब ऐसी बात नहीं है काका ,अब सरकार इस प्रकार की कला को बढ़ावा देने का कार्य कर रही हैं। हमें कम ब्याज पर कर्ज भी मिल सकता है। साथ ही हमारे द्वारा बनाई गई वस्तुओं का उचित मूल्य भी सरकार निर्धारित करती है ताकि गरीबों का शोषण ना हो।"
          "रहने दे बेटा यह सब नेताओं के अखबारी भाषण है। पूछ ले रामरति से... जब वह स्कूल जाती थी तो मास्टर जी उसे जमीन पर बैठाते थे ।वही बाकी बच्चे टेबल कुर्सी पर बैठकर पढ़ाई करते थे। रामरति ने कई बार स्कूल में झाड़ू लगाई है और स्कूल के पाखानोंनों की सफाई भी की है। तब कहीं जाकर वह पांचवी तक पढ़ पाई है। सरकार के बनाए सारे नियम अमीरों की तिजोरियों में बंद हो जाते हैं। और हमारे साथ वही व्यवहार होता है जो पुरखों के जमाने से होता आया है। अब तो हम सब इसके आदी हो चुके।"
      " आप निराश मत हो काका मैं कल ही  जाकर मुखिया जी से मिलता हूं। शायद कोई बात बन जाए"
        अगले दिन मैं तड़के ही  मुखिया जी के घर की तरफ निकल पड़ा। उनका एक भव्य बड़ा मकान था और मुख्य द्वार पर एक व्यक्ति स्टूल पर बैठा था।
 मैंने उस व्यक्ति से मुखिया जी से मिलने की अनुमति चाही तो उसने मेरा परिचय और मिलने का कारण पूछा। जब मैंने सब कुछ बताया तो उसने मुझे वहीं जमीन पर बैठ जाने को कहा।
               मेरे बैठने के काफी देर के बाद मुखिया जी बाहर निकले, और बड़े ही अटपटे अंदाज में मुझसे मिलने का कारण पूछा। मैंने भी बहुत ही कम शब्दों में अपनी समस्या बताई और सरकारी योजनाओं का हवाला देते हुए उन से मदद की गुहार लगाई। मेरी बातों को सुनकर उन्होंने मुझे ऐसे घूर कर देखा मानो मैंने कोई अनहोनी बात कह दी हो। फिर कड़कती आवाज में बोले----
" अरे ! अभी चुनाव का टाइम है । हमें दम भर का भी फुर्सत नहीं है । अभी हम तुम्हारी समस्या देखें कि अपना चुनाव ..... तुम ऐसा करो कि जवान लड़का लोग को मिलाकर हमारे चुनाव प्रचार में हिस्सा लो। इस बार भी अगर हम ही मुखिया बन गए तो तुम्हारे सारे काम करवा देंगे।"
       मुखिया जी की बातें सुनकर मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूं ।इसलिए मैं बिना कुछ जवाब दिए ही वापस आ गया। लेकिन मैं हारा नहीं था। मैं तो बस इतना जानता था कि लगन और मेहनत से किया गया हर काम एक ना एक दिन अवश्य सफल होता है। 
     हम सब ने मिलकर एक योजना बनाई। और उसी योजना के अनुसार एक दिन मै, बड़के काका और रामरति बैलगाड़ी में गांव वालों की सारी कलाकृतियां लेकर निकल पड़े, और शहर में घूम घूम कर सामान बेचने लगे। आश्चर्य, कि पहले ही दिन काफी सारा सामान बिक गया, वह भी अच्छे दामों में। हमारा आत्मविश्वास बढ़ा और गांव वालों को हौसला मिला तो वह जी जान से जुट गए अपनी कला को निखारने में। अब मैं हर हफ्ते शहर जा कर सामान बेचने लगा और गांव वालों को उनके मुनाफे के पैसे देने लगा ।  और मैं अपने मुनाफे के पैसे भविष्य के लिए रखने लगा।  साथ हीं मैंने उनके पढ़ने और काम करने का दिन तय कर दिया था। मगर उन लोगों को पढ़ाना नहीं छोड़ा। क्योंकि मैं जानता था कि शिक्षा ही वह हथियार है जिसके बल पर यह सभी अपना अधिकार पा सकते हैं। आत्मविश्वास एवं आत्म सम्मान के लिए शिक्षा सबसे बड़ा उत्प्रेरक है ।मगर इस समाज की सड़ी- गली मान्यताओं का मैं क्या करूं ? कैसे होगा यह बदलाव ? और कब तक सहना होगा हमें यह मानसिक हिंसा ? 
      इसका जवाब शायद अभी मेरे पास नहीं था। मगर मैं इतना तो जानता था कि मैं अब वही करूंगा जो मुझे उचित लगेगा और जिस  काम के लिए मेरी आत्मा राजी होगी। एक ना एक दिन इस समाज को हमारे प्रति अपना नजरिया बदलना ही होगा।
       फिलहाल मैं अपनी इतनी सी उपलब्धि से संतुष्ट नहीं था। इसीलिए मैंने तकनीक का सहारा लिया। क्योंकि मशीन किसी भी प्रकार के भेदभाव को नहीं मानती। हमारा स्पर्श उसे अछूत नहीं बनाता था। मैंने अपने कुछ पैसे बचाकर एक कंप्यूटर खरीदा। बड़के काका ने भी मेरी मदद की। फिर सोशल मीडिया का सहारा लेकर मैंने अपने गांव एवं यहां की कलाकृतियों का  भरपूर प्रचार किया।
            मैं भले ही 12वीं फेल था। मगर लगन और परिश्रम की कमी नहीं थी मुझमें। गांव वालों का साथ एवं उनके विश्वास ने मुझे एक अलग ही शक्ति प्रदान कर रखी थी। मैंने शहर जाकर कुछ बड़े दुकानदारों से भी बात किया । मेरे सौम्य व्यवहार और ग्रामीण कला के उत्कृष्ट नमूनों ने उन्हें प्रभावित किया। और उन लोगों ने रुचि दिखाई।आवागमन खर्च से बचने के लिए उन्होंने गांव से सामान लेने के लिए वह अपने आदमी एवं सवारी भेजने लगे। इससे हमारी एक बड़ी समस्या का समाधान हुआ। तीज त्यौहार शादी-ब्याह एवं छठ पर्व में भी बिक्री बढ़ने लगी। व्यापारियों के गांव में आने से अब गांव के उच्च वर्ग के लोगों ने हमें हिकारत से देखना कम कर दिया था।
            इधर पढ़ाई में सब की रुचि देख कर एक दिन पड़ोसी गांव के हाई स्कूल के प्रिंसिपल ने मुझे सलाह दी कि मैं इनके स्कूल में सबका नामांकन करवा दूं। सरकार की तरफ से हर प्रकार की सुविधा एवं पठन सामग्री मिलेगी। बस फिर क्या था सबकी तो मानो मन मांगी मुराद मिल गई हो। मुझे भी प्रिंसिपल साहब ने स्कूल के बच्चों को कंप्यूटर सिखाने के लिए कहा। मैं कोई कंप्यूटर टीचर को नहीं था मगर कुछ किताबों को पढ़कर और कुछ सर्च इंजन का सहारा लेकर जरूरत भर कार्य कर लेता था। फिर भी मैंने वहां के बच्चों को कंप्यूटर की आधारभूत शिक्षा देनी शुरू कर दी। एक प्रकार से अवैतनिक शिक्षक बन गया उस स्कूल का। कंप्यूटर की शिक्षा पाकर बच्चों के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न होने लगा और पढ़ाई के प्रति उनकी रूचि भी बढ़ी।
      " अरे गुरुचरण बाबू .....कहां हो ? आज तो मिठाई खाने का दिन है। और देखो मैं मिठाई भी लेकर आया हूं। सब मिलकर खाएंगे।"----- प्रिंसिपल साहब की आवाज सुनकर मेरी तंद्रा भंग हुई।
" हां मास्टर साहब... गुदरी बचवा ने आज हमारा सिर ऊंचा कर दिया।"---- बड़के काका ने प्रिंसिपल साहब के हाथ से मिठाई का खाते हुए कहा।
" हम तो तुम्हारे माता-पिता को भी खबर कर दिए हैं दिल्ली में । एक-दो हफ्ते में वह लोग भी आ जाएंगे । बहुत खुश हो रहे थे तुम्हारी उपलब्धियों को जानकर।"
" मेरी क्या उपलब्धि है काका ....आप सब लोगों का प्यार और विश्वास ही मेरे लिए ताकत बन गया। मेरे साथ-साथ आप सब ने भी तो 6- 7 साल तक मेहनत किया है।"
" हां गुरुचरण, तुम सब की मेहनत का परिणाम ही है ही है सब। बाकी सब की सोच तुम्हारी जैसी हो जाए तो गांव से शहर और शहर से विदेश की ओर प्रतिभा पलायन कुछ कम हो जाए।"----- प्रिंसिपल साहब ने मेरे हाथ से लड्डू खाते हुए कहा।
" अब मेरी मानो तो तुम भी 12वीं पास कर ही लो बिटवा।"---- बड़के काका ने मानो मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
" तुम्हारे काका सही कह रहे हैं गुरुचरण ...तुम चाहो तो दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था के द्वारा भी आगे की पढ़ाई जारी रख सकते हो। क्योंकि शिक्षा का महत्व तुम से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।"----
" आप सही कह रहे हैं प्रिंसिपल साहब.... शायद अब वक्त आ गया है कि मैं अपने माता पिता के सपनों को भी पूरा करने का प्रयास करु। हवाएं अब अपना रुख बदल रही हैं तो मुझे भी इसका फायदा उठाना चाहिए ताकि, भविष्य में मैं हमारे समाज के लिए और भी अधिक तरक्की का मार्ग प्रशस्त कर सकूं।"
             मैंने एक नजर गांव वालों पर डालकर देखा । सबके चेहरों पर संतुष्टि एवं बदलाव के भाव थे । मानसिक पीड़ा के बादल छँट रहे थे । आज मेरा 12वीं फेल होना शायद सार्थक हो गया था।
 Dr.Jyoti Maheshwari

Dr.Jyoti Maheshwari

बहुत अच्छी कहानी है।

18 जनवरी 2023

Shraddha 'meera'

Shraddha 'meera'

कहानी लाजवाब है , गुदरिया का फैसला काबिले तारीफ़ रहा 👏👏👏 बेहद उम्दा प्रस्तुति

15 अक्टूबर 2021

Artee

Artee

15 अक्टूबर 2021

धन्यवाद बहन

4
रचनाएँ
जहां चाह वहां राह
5.0
एक ऐसे इंसान की कहानी जिसने अपने मेहनत के बल पर ना सिर्फ स्वयं आगे बढ़ा बल्कि अपनी पूरी बिरादरी को एक नई राह दिखाई

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए