अधूरी नींद से बोझिल आंख को मल के रुचि ने तकिये के नीचे रखे अपने फोन से जल्दी से अलार्म बन्द किया।
अलार्म अपना कर्तव्य निभा चुका था, उसे जगा के।
अब अगर उसे न रोका जाता तो वो रुचि को सोते पति से डाँट खिला देता।
सुबह के पांच बजे थे।
घर की साफ सफाई, नास्ता बनाना , पति के लिए खाना बनाना, बच्चों को तैयार करते खुद भी तैयार होकर बच्चों को स्कूल छोड़ते अपने स्कूल के लिए निकलना..
अगले कुछ घंटे उसके ये सब निपटाते भागते-दौड़ते निकलने थे।
पति, रमन मूडी आदमी थे।
उन्हें रुचि के सपने, शौक, पसन्द, नापसंद किसी चीज से कोई मतलब नहीं। परिवार के साथ घूमना-फिरना, पार्क में जाना, चौपाटी जाना या कभी मूवी जाना.. ये सब उसे बेकार के चोचले लगते थे। और तो और घर के जरूरी काम, बच्चे, उनका स्कूल, पैरंट्स मीट तक से वो मतलब न रखते थे।
हाँ.., पर बच्चों के रिपोर्ट कार्ड पर जरूर नजर रखते। जहाँ किसी सब्जेक्ट में बच्चे कमजोर दिखे, रुचि पर उबल पड़ते।
औसत कद, गेंहुआ रंग, भरा हुआ शरीर, आधे चाँद के नीचे गम्भीर चेहरा, कलेक्टर आफिस में बड़े बाबू थे।
उनका रोज का शेड्यूल फिक्स रहता।
उठते ही फ्रेश होकर वाक पर जाना,
आकर चाय पीते पीते अखबार पढ़ना,
फिर नहा खाकर ऑफिस के लिए निकल जाना।
शाम को घर आने की भी उन्हें कोई जल्दी न रहती। आफिस से पांच बजे छुट्टी तो हो जाती थी, पर दोस्तों के साथ गपशप मारते, घूमते-फिरते रोज रात दस बजे के आस पास ही आते थे।
घर के लिए राशन, सब्जी, बच्चों को घुमाना, उन्हें पार्क ले जाना, उनकी हर डिमांड पूरी करना, उन्हें होमवर्क कराना सब रुचि के ही जिम्मे था।
रुचि के लिए भी ये रोज के काम थे।
वो रोज सुबह पांच बजे उठ ही जाती थी। वो नौकरी के साथ साथ घर की सारी जिम्मेदारी निभा रही थी।
पर कल देर से सोई थी इसलिए अलार्म डाल रखी थी।
कल रमन को आते बारह बज गए थे।
दोस्तों के साथ कोई छोटी सी ड्रिंक पार्टी मना कर आए थे।
रुचि बच्चों का होमवर्क निपटा के उन्हें खाना खिला के सुला चुकी थी।
फ्रेश हो के रमन ने पूछा क्या बनाई हो खाने में...?
और अपनी रोज की आदत के मुताबिक नई सब्जी की फरमाइश कर दी।
कितना बोली थी रुचि रात बहुत हो चुकी है, आज जो बना है खा लो,
पर रमन रुचि की कोई बात कभी माने थे, जो कल मान जाते।
बनाते खाते डेढ़ बज गए।
रमन तो रोज की ही तरह खर्राटे मारते सो गए,
पर रुचि की आँख से नींद गायब थी।
वो टकटकी लगाए,
सर के ऊपर अनमने से घूमते पंखे को देख रही थी।
वो भी तो कुछ ऐसे ही जी रही थी, न कोई उमंग न उल्लास बस कर्तव्य की धुरी पर घूमे जा रही थी।
क्या-क्या सपने देखे थे और कैसी जिंदगी मिली। पिछले ग्यारह साल से रोज यही किस्सा दोहराते, घर परिवार और नौकरी में सामंजस्य बिठाते, इकहरी रुचि कब पैंतालीस से सत्तर किलो की हो गई, पता ही नहीं चला था।
पति का घर के प्रति गैर जिम्मेदाराना व्यवहार और कुछ कहने पर गाली गलौज, रुचि को अंदर ही अंदर खाए जा रही थी।
वो राजकुमार जो कभी हरश्रृंगार के फूलों से रुचि के बाल सजाया करता था, सपनों से निकल कर कभी आया ही नहीं।
कॉलेज के दिनों में रुचि ऐसी लगती थी,
जैसे किसी शांत झील में श्वेत कुमुदिनी खिली हो।
काले घने बाल, दूधिया रंग, ऊंचा कद, इकहरा बदन, बड़ी बड़ी नम आंखें ।
कॉलेज के लड़के उसकी एक झलक के लिए कतार बांधे रहते, जिससे वो दो पल बात कर लेती, वो गंगा नहा आता।
उसके ज्यादातर सहेलियों के बॉय फ्रेंड थे, पर उसने कभी किसी को अपनी छाया तक न छूने दिया था।
वो कहती मेरा बॉय फ्रेंड मेरा पति होगा।
ऐसा नहीं कि वो शांत, भोली-भाली या कोई बहनजी टाइप की लड़की थी..
वो भी मस्ती, शरारत करती, लाइफ को एन्जॉय करती, और बात बात पे ठहाके लगा कर हँसती एक बेपरवाह जिंदादिल लड़की थी।
पर लड़को से दोस्ती करने के मामले में उसकी अपनी एक धारणा थी।
ये बात और है कि अपनी सहेलियों को देख मन ही मन अक्सर वो भी कल्पना किया करती थी।
चिपक कर बैठे लांग ड्राइव पर जाना,
वीकेंड पर मूवी देखना,
हाथ पर हाथ धरे घूमना,
किसी सूनसान जगह पर अपने गोद मे सर रख के लेटे उसके मुलायम बालों को सहलाना....
पर उसकी हर कल्पना में उसका भावी पति ही उसके साथ होता।
उसने तो उसे देख भी लिया था।
सांवला रंग, कसा हुआ शरीर, मुस्कुराती आंखें, रेशम से मुलायम लहराते बाल,
हर रात वो उसके सपनों में आता था।
आँगन में हरश्रृंगार के झड़े फूल पर लेटे वो घन्टों बातें किया करते थे।
आज कोई उसे देखे तो एक बार को विश्वास न हो कि यह वही चुलबुली सी खिलखिलाती लड़की है। उसके सपनों और आज के हकीकत को देख के लगता है, जैसे समाज का एक दस्तूर निभाने, एक परिवार बसाने के लिए खुद के पुराने रूप को भूल कर एक नया रूप ही धर बैठी है।
इन ग्यारह सालों में वह बिल्कुल बदल गयी थी।
ज्यादातर लड़कियों की तरह, मजाक करने, और बात बात पर जोर से ठहाका लगा के हंसने की अपनी आदत तो वह भी माँ के कहने पर मायके के किसी खूंटी पर टांग आई थी, पर इतनी बदल जाएगी किसी ने सोंचा नहीं था ।
बस उसने अपनी एक आदत किसी तरह बचा रखी थी,
सपने वह तब भी देखा करती थी, और आज भी देखा करती है।
रात दिन की हड़बड़ी को देख कर कई बार उसने नौकरी छोड़ने की सोंची थी,
पर रमन अपने पैसों को दांतों से दबाये रखते।
एक-एक पैसे के लिए उनको चीखते देख रुचि डर जाती कि कहीं नौकरी छोड़ने के बाद उसे शारीरिक और मानसिक सुख के जैसे ही, पैसों का भी मोहताज न होना पड़ जाए। अभी कम से कम वो जो मर्जी खा सकती है, पहन सकती है, कहीं आ जा तो सकती है। यही सोंच वो नौकरी नहीं छोड़ पाती थी।
अपने भाग्य को कोसते रुचि ढाई तीन बजे तक सो पाई थी।
एक नजर सोते हुए रमन और बच्चों पर डाल वह उठ खड़ी हुई। गैस जला कर उसने पानी गरम किया।
एक गिलास गुनगुना पानी पीकर पहले वह कुछ देर आंगन में टहलती थी।
आज ड्राइंग रूम में आकर सोफे पर बैठ गयी।
नींद पूरी न होने से शरीर थका हुआ सा लग रहा था, आंखें मुँद रही थी। वो फिर से नींद के आगोश में चली गयी।
आँख खुली तो रमन सामने सोफे पर बैठे चाय पीते हुए, अखबार पढ़ रहे थे।
रुचि ने घड़ी की तरफ देखा, आठ बज रहे थे।
"मर गई मैं तो, आठ बज गए। आज बच्चों का स्कूल मिस हो गया, आपने मुझे जगाया क्यों नहीं।"
रुचि उठते हुए बोली।
"नहीं, बच्चे स्कूल चले गये।"
"पर उनका नाश्ता, उनकी तैयारी, उनका बैग चेक करना..?"
"सब हो गया है, तुम चिंता मत करो। घर-परिवार, बच्चे क्या सिर्फ तुम्हारी जिम्मेदारी है, सब कुछ अकेले ही निपटाते, कितना थक जाती हो तुम। आज से मैं हर घड़ी तुम्हारे साथ हूँ। जाओ, नहा कर तैयार हो जाओ, आज तुम्हे तुम्हारे स्कूल छोड़ते हुए आफिस जाऊँगा.."
रमन मुस्कुराते हुए बोले।
पति की बात सुन रुचि अवाक रह गयी,
उसके मुंह से प्रेम की झड़ी उसे हतप्रभ किए जा रही थी।
उसे लगा जैसे घर अचानक हरश्रृंगार के खुशबू से महकने लगा हो।
वो रमन के बाँहो में झूल गयी।
रुचि रमन के बाइक में पीछे चिपक कर आंख बंद किए बैठी है...
उन्हें एकांत देने के लिए सड़क को बड़े बड़े साल के वृक्ष दोनों ओर से घेरे हुए हैं..
गुनगुनी धूप पत्तों से निकल उसके गालों को छू रही हैं..
हवा अपने झोंकों में कहीं से खुशबू घोल लायी थी..
आज उसने अपना फ़ेवरेट मैरून साड़ी पहन रखी है..
वो सूट से ज्यादा खूबसूरत साड़ी में लगती है..
ब्राउन शर्ट में रमन का चेहरा खिल उठा है..
ये क्या..
अचानक रुचि ने देखा ये तो वही है,
जो सपनों में आया करता है।
वो कोई मीठा सा गीत गुनगुना रहा था...
रुचि ने अपने उंगली से उसके कंधे पर वो तीन शब्द लिख दिए,
जो वो उससे कब से कहना चाह रही थी..
हरश्रृंगार की हल्की खुशबु उसके देह से उठने लगी थी..
अभी स्कूल के लिए समय है।
एक बड़े से गुलमोहर के नीचे रमन रुचि के गोद मे सर रखे लेटा हुआ है..
वो उसके होंठो पर उंगली फिरा रही है...
उसने अपने दहकते होंठ रुचि के सुर्ख होंठो पर धर दिया।
अब वो मौन की भाषा समझने लगा है..
रमन रुचि के आंखों में देख कर कह रहा है..
"रुचि तुम कितनी खूबसूरत हो, ऐसा लग रहा जैसे तुम्हे पहली बार देख रहा हूँ"
रुचि के गाल गुलमोहर के फूल से मेल खाने लगे हैं..
चारों तरफ फूलों की लाल चादर बिछी है..
रुचि उसके आंखों के स्नेह सागर में खोई कुछ बोलने ही वाली है.. कि रमन अचानक जोर से चीख पड़ा..
"रुचि.. रुचि.."
रुचि हड़बड़ा जाती है।
"ये क्या बिस्तर से उठकर यहां सोफे पर सो रही हो, छै बज रहे आज बच्चों को स्कूल नी भेजना..?, सो सो कर मोटी भैंस बनती जा रही हो"
रुचि स्वपनलोक से धरातल पर गिर कर चेतना में लौटी।
उसने एक ही पल पहले ब्राउन शर्ट और जीन्स पहने रमन की तरफ देखा,
वो टॉवेल लपेटे गुस्से से रुचि पर बरस रहे थे।
कमरे से हरश्रृंगार की खुशबू उड़ चुकी थी।
मुस्कुराते हुए वह धीरे से उठ खड़ी हुई।
वो जान चुकी थी, ये सपना था।
सुबह का सपना..
जो वो अक्सर देखा करती है।
और जिसके कभी पूरे होने के आस में वो जिये चले जा रही है।
-------------समाप्त----------
कहानी आपको कैसी लगी कॉमेंट में अवश्य बताएं।
sham
@8319745898
शुक्रिया...🙏🙏🙏