दरवाजे पर अक्सर होती है दस्तक
पर नहीं दिखता है कोई बाहर
यूँ तो कटी है तमाम उम्र
हमने तन्हाई में ,पर न जाने क्यूँ
अब तनहाइयों से डर लगता है
अक्सर सर्द रातों में सोंचता हूँ
कोई होता तो बाँट लेता इन ठंडी रातों को,
और ओढ़ लेता जिस्म को बना चादर
शायद वो ,जो याद दिलाता
की घर जल्दी आना .
बनायीं हुई एक प्याली चाय से
उनीदी आँखों मैं जगाता सपना कोई
जो होता अपना मेरा .