"शांता..मेमसाहब की तबियत ठीक नही है, चाय के साथ दो बिस्किट दे कर ये दवाई दे देना,मैं ऑफिस जा रहा हूं" गौरव आफिस के लिए निकलतें हुए कहा.
"जी साहब..मैं दे दूंगी, आप फ़िक्र ना करे" शांता ने कहा.
गौरव मेरे पति जिन्हें समाज़ के सामने मेरी फ़िक्र होती हैं वही अकेले में मुझसे बेइंतहा नफ़रत.
तीन साल पहले मैं उन्हें सौंदर्य की देवी लगती थी आज वही रूप उन्हें विकृत लगता है..विवाह के कुछ समय पश्चात तक सब कुछ बहुत सुंदर था ना जाने ज़िन्दगी कब इतनी घृणित हो गयी, उसकी दी हुई शारीरिक पीड़ा की तहम्मुल उठाते उठाते मेरे आँसू सूख गए, चौबीस घंटो में,आठ नौ घंटे मैं डरी सहमी रहती जाने किस बात पर गौरव मुझ पर नाराज़ हो जाए, उसकी एक आवाज़ पर मैं उसके समक्ष खड़ी हो जाती और वो मुझे ऐसी हालात में देख ख़ुश रहता,अपनी मर्दानगी बिस्तर पर जानवर बन कर निकालता...मज़ाल है मैं उफ़्फ़ भी कर लूं, कल रात फिर उसका वहशी रूप दिखा, नशे में नोंचने खसोटने लगा मैंने थोड़ा प्रतिकार क्या किया साइड टेबल पर रखा पीतल का वास मेरे कमर पर दे मारा, मैं दर्द से तड़प उठी, उसको अपने कृत्य का कोई मलाल नही था मेरे दर्द को अनदेखा कर ख़ुद को तृप्त कर कमरे से बाहर निकल गया, मैं निवस्त्र, शून्य, ज़ख्मी, पीड़ित पड़ी थी,उसे मेरी वेदना का अहसास नही था.
"मेमसाहब, चाय पी लो फ़िर ये दवाई खा लेना" शांता चाय, बिस्किट और दवा लेकर खड़ी थी.
"रख दे वही..पी लूंगी" मैंने कहा.
'मेमसाहब, बुरा ना मानो तो एक बात कहूँ ?
हर सुबह अपने दर्द छिपाती हो.
क्या मैं जानती नही?
सब समझती हूं
क्यों सहती हो ये सब, छोड़ दो साहब को' शांता को आज पहली बार क्रोध में देखा, वो कभी इधर उधर की बातें नही करती, आती है और अपना निर्धारित कार्य कर के चली जाती है, उसका ये रूप मुझे अचंभित कर रहा था.
"मेमसाहब, अगर तुम्हें लगता है साहब आज नही तो कल बदल जाएगे तो ऐसा कभी नही होगा..वो ऐसे ही रहेंगे बस तुम्हें इसकी आदत हो जाएगी, अब तो गली मुहल्ले वाले भी ये किस्सा जानने लगे है" शांता के सहारे मैं कपड़े बदलने लगी और वो आज अपने दिल का ग़ुबार निकाल रही थी.
"पड़ोसियों के लिए मैं दया के पात्र हो गयी हूं..है ना?" मेरी नज़र उसके चेहरे पर टिक गयी.
"नही मेमसाहब, दया नही आप सब के लिए मज़ाक का केंद्र है, सब हँसते है..कहते है कोई कुछ क्या बोले जब वो ख़ुद मौन रहकर तीन साल से मार खा रही है, गालियां सुन रही है' शांता ने कहा.
"शांता, अपने माता पिता की असहमति को अनदेखा कर गौरव से मैंने प्रेम विवाह किया था जिस कारण मायके वालों ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया, मैं प्रेम में पागल थी, झूठ को सच समझ अपनो से बैर कर लिया, यहाँ से गयी तो कहाँ जाऊंगी, अब तो जैसे भी हो निभाना तो पड़ेगा आखिरकार ये ज़िन्दगी, ये साथी मैंने ख़ुद चुनी है"मैंने गहरी सांस ली.
"एक बार बात करो, माँ बाप नाराज़ हो सकते है अपनी औलाद से मुँह नही फेर सकते, ये लो मेरा फ़ोन, कोई नही है यहाँ..बात कर लो" शांता ने अपना फ़ोन मेरे हाथों में थमाया.
मैंने कांपते हाथों से नंबर डायल किया..मन में डर था, कही नंबर बदल न गया हो..तीन साल..एक लंबा अरसा हो गया.
"हेलो..कौन बोल रहा है" उधर से आवाज़ आई
माँ की आवाज़ है, अचानक हलक सूख गया, मेरी आवाज़ नही निकल रही थी.
"कौन है, किससे बात करनी है..हेलो"
"हेलो, मैं शांता बोल रही हूं" मेरे हाथ से फ़ोन ले कर शांता कमरे से बाहर निकल गई.
मेरा मन व्याकुल हो उठा, वर्षो पश्चात आज माँ की आवाज़ सुन पीड़ामुक्त हो गयी थी, दर्द छूमंतर हो गया था.
"मेमसाहब, उठने की कोशिश करो..आप के माता पिता ने आपको वापस घर आने को कहा है वो लोग आठ बज़े की ट्रेन का टिकट करा कर मेरे फोन पर भेजेंगे तो ये फ़ोन रख लो और ये कुछ पैसे" शांता के आँखों में आंसू थे जिन्हें वो छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी.
"शांता, तुम्हारा ये अहसान मैं कैसे उतारूंगी" मैंने उसके हाथों को कस कर थाम लिया.
"कोई अहसान नही है,नई ज़िन्दगी शुरू करो, डरने वालो को लोग और डराते है, निर्भीक हो कर अपने बिखरे आत्मविश्वास को समेट कर आगे बढ़ो" आज शांता एक कामवाली नही देवी स्वरूपा लग रही थी.
शाम के छह बज़ गए, गौरव ऑफिस से आ गए थे,
"गौरव, मैं जा रही हूं..इस घर में तुम्हारे साथ सपने संजोए आयी थी आज ज़ख्म लिए जा रही हूं...सोचा था..तुम्हारे घर आने से पहले निकल जाऊंगी लेकिन मैं अपनी ज़िन्दगी का सबसे सही फैसला छुप कर नही लेना चाहती थी, मैंने तो तुमसे सच्चा प्रेम किया था तुमने बदले में नफ़रत दे दिया..ज़ख्म नासूर ना बन जाए इससे पहले मुझे फ़ैसला लेना था, एक ही विनती है तुमसे, फ़िर किसी लड़की की ज़िंदगी तबाह मत करना, याद रखना..अपने बुरे कृत्यों परछाई सदैव साथ रहती है...जो भुलाये नहीं भूलती एक ना एक दिन तुम्हें अहसास होगा...आज मैं ये फ़ैसला नही लेती तो मेरे साथ रह जाता...एक पछतावा..दुख,कायरता, निर्बलता का.
मुझे ज़िन्दगी गुज़ारनी है लेकिन अब अपने शर्तो पर,अपनी ख्वाहिशों के लिए, खुशियों के लिए"
गौरव सोफ़े पर जड़ बैठे थे, अचंभित..मौन
मुझे एकटक देख रहे थे.
लड़खड़ाती कदमों से गर्वित क़दम लिए मैं बाहर निकल गयी..
मैं पुरसुकून थी..
सिर से बोझ उतर गया हो जैसे.
बरसों बाद आज सार्थकता मिली है
मेरी ज़िन्दगी को,मेरे सपनों को.
दिल और दिमाग़ ने एक साथ कहा
थैंक यू शांता।।
लेखिका
अनामिका अनूप तिवारी
नोएडा
anamika77@gmail.com