ग़ज़ल
चले थे साथ जिनके फलक तक के सफ़र के लिए
तरस गए हैं आज उनसे ही एक नज़र के लिए।
आज हुआ मालूम होता है ऐसा भी जहां में
ख़ुशी चाहो जिनकी वही ग़म देते हैं उम्र भर के लिए।
फ़िक्र ना हो मेरा मगर उन्हें होता इतना एहसास कि
है कोई दरिया बेचैन बहुत किसी समंदर के लिए।
वे दुआ करते है मेरी तवाही का रब से हर वक्त
और हम दुआ करते हैं उनकी दुआओं के असर के लिए।
हम दीवानों का मकां नहीं गाँवों में भी
और हम नादां निकल पड़े थे लिए ख्वाब शहर के लिए।
खैर मेरा मुक़द्दर तो देखिए कोई तो है साथ मेरे
कुछ ऐसे भी हैं जो उम्र भर तरसते हैं हमसफ़र के लिए