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तरस गए हैं.....

25 दिसम्बर 2015

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ग़ज़ल 
चले थे साथ जिनके फलक तक के सफ़र के लिए
तरस गए हैं आज उनसे ही एक नज़र के लिए।
आज हुआ मालूम होता है ऐसा भी जहां में
ख़ुशी चाहो जिनकी वही ग़म देते हैं उम्र भर के लिए।
फ़िक्र ना हो मेरा मगर उन्हें होता इतना एहसास कि
है कोई दरिया बेचैन बहुत किसी समंदर के लिए।
वे दुआ करते है मेरी तवाही का रब से हर वक्त
और हम दुआ करते हैं उनकी दुआओं के असर के लिए।
हम दीवानों का मकां नहीं गाँवों में भी
और हम नादां निकल पड़े थे लिए ख्वाब शहर के लिए।
खैर मेरा मुक़द्दर तो देखिए कोई तो है साथ मेरे
कुछ ऐसे भी हैं जो उम्र भर तरसते हैं हमसफ़र के लिए

-रघू- नारायण की अन्य किताबें

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

खूबसूरत ग़ज़ल !

25 दिसम्बर 2015

प्रियंका शर्मा

प्रियंका शर्मा

भगवान न करे की ऐसा कोई हो जो तन्हा हो ..... बहुत सुंदर लिखा है आपने रघु जी ।

25 दिसम्बर 2015

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मीडिया वालों संभल के!

23 दिसम्बर 2015
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काश तेरे घर के सामने

23 दिसम्बर 2015
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 काश तेरे घर के सामने मेरा भी घर होता, उठाती जब खिड़की का परदा तो तेरा दीदार होता,मैं देखता सिर्फ़ तेरे घर की ओर,इसके सिवा और कहां मेरा नज़र होता,तू सिर्फ़ देखती हमे काश मैं आइना होता,लोग कहां कुछ समझ पाते,ये भी अपनी सूरत देखने का बस बहाना होता,काश तेरे घर के सामने मेरा घर होता.....copyright©by-ragh

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काश तेरे घर के सामने

23 दिसम्बर 2015
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 काश तेरे घर के सामने मेरा भी घर होता, उठाती जब खिड़की का परदा तो तेरा दीदार होता,मैं देखता सिर्फ़ तेरे घर की ओर,इसके सिवा और कहां मेरा नज़र होता,तू सिर्फ़ देखती हमे काश मैं आइना होता,लोग कहां कुछ समझ पाते,ये भी अपनी सूरत देखने का बस बहाना होता,काश तेरे घर के सामने मेरा घर होता.....copyright©by-ragh

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माँ अगर तू ....

23 दिसम्बर 2015
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माँ तू अगर क़रीब होती है तो ...माँ तू अगर क़रीब होती है तोकितना अच्छा लगता है,मगर तेरे बैगर क्या बताए किये जहां कैसा लगता है,भीड़ होती है चारों ओर मगरकहाँ कोई अपना लगता है,ख़ुशियों की महफिल भी हो तोतन्हा जैसा लगता है,माँ सोचो कितना अच्छा होता तेरी आँचल की घनी छाँव में मैं सोता,बँद करता आँखें भी तोतू

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तेरे बैगर

25 दिसम्बर 2015
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ग़ज़लतेरे बैगर जिन्दगी अधूरी कहानी लगती हैजी रहा हूँ मगर जीना बेईमानी लगती है ,तेरी यादों के पल आने वाले हरेक अश्क को संभाले रखा हैतेरे प्यार की ये बतौर निशानी लगती है ,बेवफ़ाई के बाद अब कुछ भी कहाँ अच्छा लगता हैअब तो बेकार ये अपनी जवानी लगती है ,मेरे अफसाने सुनने वाले रोक न सके अश्क भीलोगों को मेरी

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तरस गए हैं.....

25 दिसम्बर 2015
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ग़ज़ल चले थे साथ जिनके फलक तक के सफ़र के लिएतरस गए हैं आज उनसे ही एक नज़र के लिए।आज हुआ मालूम होता है ऐसा भी जहां मेंख़ुशी चाहो जिनकी वही ग़म देते हैं उम्र भर के लिए।फ़िक्र ना हो मेरा मगर उन्हें होता इतना एहसास किहै कोई दरिया बेचैन बहुत किसी समंदर के लिए।वे दुआ करते है मेरी तवाही का रब से हर वक्तऔर

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