तरनपुर कस्बे की कहानी ( प्रथम क़िश्त )
आज के बिलासपुर शहर से लगभग 30 किमी दूर एक बड़ा सा कस्बा था तरनपुर । आज से कुछ सौ साल पूर्व यह कस्बा इस क्षेत्र का एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था ।
पुराने लोग बताते हैं कि उस जमाने के राजा थे, महाराजा सुमेर सिंग भोसले । सुमेर सिंग भोसले जी हर समय आमोद प्रमोद में व्यस्त रहते थे । वे अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे । उनका मंत्रीमंड़ल बहुत बड़ा था ।
वैसे तो महाराजा दिल से बड़े ही नेक इंसान थे । पर उनकी प्रशासनिक क्षमता भी बेहद कमज़ोर थी । जिसके कारण कुर्सियों पर बैठे लोग लूट ख्सोट में तल्लीन हो गये । महंगाई आसमान छूने लगी । लोगों का जीना दुभर हो गया ।
व्यापारियों ने प्रारंभ में इस व्यवस्था का बेहद लाभ लिया पर साल भर के बाद उनकी बिक्री में बेहद कमी आ गई । इन सब चीज़ों का नकारात्मक परिणाम आने लगा । लोगों की ज़ेबों में पैसा बचा ही नहीं ।
जब यह बात राजा के संज्ञान में आई तो उन्होंने पहले पता लगाया कि हमारे राज के लोगों की कमाई का मुख़्य आधार क्या है? उन्हें पता चला कि उनका देश गौधन से विपुल है । यहां दूध , दही , घी , पनीर व खोवा बहुत मात्रा में होता है । पर वर्तमान में जनता के पास उन सब चीज़ों को खरीदने का पैसा ही नहीं है । अत: अधिकान्श दूध संबंधित प्राडक्ट्स बिना उपयोग के नष्ट हो जाते हैं या कर दिये जाते हैं । राजा ने और पता लगाया तो उन्हें यह भी पता चला कि बाजू वाले देश गोटा के लोग बहुत पैसे वाले हैं और उनकी क्रयक्षमता यहां से 4/5 गुना अधिक है। राजा ने तुरंत ही यह आदेश दे दिया कि दूध और दूध संबंधित सारे प्राडक्ट्स को बगल के देश कोटा ले जाकर बेचा जाय। साथ ही राजा ने तरनपुर रियासत में दूध व दूध संबंधित प्राडकट्स के सेवन पर पाबंदी लगा दिया ।
6 महीने में राजा के इस निर्णय का परिणाम दिखने लगा । तरनपुर स्टेट में पैसों की बारिश होने लगी । जनता की ज़ेबें अब भरने लगीं । लेकिन इस व्यवस्था का एक नकारात्मक पक्ष कुछ सालों में उजागर होने लगा , कि यहां के बच्चे बेहद कमज़ोर दिखने लगे। बच्चे बार बार बीमार पड़ने लगे । और कई बच्चों की उम्र 15 से 16 साल होते तक उनकी मृत्यु भी होने लगी । जब गोटा वालों को पता चला कि तरनपुर में बीमार बच्चों की संख़्या बढने लगी तो गोटा के कई सक्षम लोगों ने पैसा लगाकर तरनपुर में बड़े बड़े कई चिकित्सालय बनाकर उन चिकित्सालयों को प्रोफ़ेशनल तरीके से संचालित करने लगे । अब तरनपुर के अधिकान्श लोगों का पैसा बच्चों के इलाज पर खर्च होने लगा ।
गोटा के लोग अब तरनपुर में ज़मीनें खरीदने लगे । कुछ लोगों ने दवा बनाने की फ़ेक्ट्रियां भी प्रारंभ कर दिया ।
उधर जब तरनपुर के लोगों का पैसा इलाज में बहुत ज्यादा खर्च होने लगा तो कई लोग अपनी ज़मीनें बेच कर पैसों की व्यवस्था करने हेतु मजबूर हो गये ।
दस सालों में तरनपुर का नक्शा ही बदलने लगा । बड़ी बड़ी फ़ेक्ट्रियां और बड़ी बड़ी दुकानें खड़ी हो गईं । लेकिन वहां के अधिकान्श बड़े बड़े व्यापारिक संस्थानों के मालिक गोटा वाले ही थे और तरनपुर वाले उस संस्थानों में नौकरी करने लगे । आगे जाकर पशुधन के मालिकों को हाल भी यही होने लगा । उनकी आमदनी भी अपने बच्चों के इलाज पर खर्च होने लगी तो वे अपने पशुधन को बेचने लगे । जिन्हें खरीदने में सबसे आगे गोटा वाले ही लोग थे । इस तरह कुछ समय में ही गोटा में बड़ी बड़ी डेयरियां खुल गई । वहां दूध इतना ज्यादा होने लगा कि वहां से रायगढ और सारंगढ तक दूध की सप्लाय होने लगी ।
उधर राजा सुमेर सिंग अपनी रियासत में बड़ी बड़ी दुकानें और कारखानों को देखकर बहुत ख़ुश होते थे । उन्हें लगता था कि उनकी रियासत ने जितनी तरक्की की है उतनी तो आसपास के किसी और रियासत ने नहीं की है । उनके मंत्री गण भी उन्हें यथार्थ से दूर ही रखते थे । उनमें इतना आत्मबल नहीं था कि राजा को बता सकें कि तरनपुर के निवासी दूध न पी सकने के फ़रमान के कारण बुरी तरह से शारिरिक रुप से कमज़ोर हो चुके हैं । धीरे धीरे बहुत सारे नागरिक गण मौत की आगोश में समा चुके हैं । समस्त व्यापारिक गतिविधियां गोटा के लोगों के हाथों में आ चुकी थी। साथ ही अब गोटावालों की आबादी रतनपुर में दो तिहाई से भी कुछ ज्यादा हो चुकी थी।
( क्रमशः )