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वीर सावरकर --हिंदुत्व के अनुपम व्याख्याकार

21 अगस्त 2018

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वीर सावरकर --हिंदुत्व के अनुपम व्याख्याकार


भूमिका:--


हमारा देश जो आर्यों की मूल भूमि हैं जहाँ से मानव जीवन की सभ्यता का आरंभ होता हैं ,ऐसे महान देश के प्रति जब हमारा सर गर्व से ऊँचा उठता है तभी इस देश के लिए न्यौछावर करने वाले देश के विभिन्न क्रांतिकारियो के प्रति हमारा सिर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए नतमस्तक हो जाता हैंइन्ही क्रांतिकारियो की नक्षत्रमालिका में दैदिप्यमान सूर्य के समान चमकने वाला नक्षत्र आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उसके मस्तिष्क से निकलने वाली वे बुद्धिधाराएँ जो उनके विचारों के प्रकाश के रूप में हमारे पास आज भी मौजूद हैं हमें आज की इन अंधेरी परिस्थितियों में हमें रास्ता दिखाने के लिए

सोने की चिड़िया कहे जाने वाले हमारे देश, देश की संस्कृति, हमारे देश के बुद्धिजीवी प्रकांड शास्त्रियों पर अचानक काले बादलों ने आकर घेरा डाल दिया और परिस्थितियों ने , वातावरण ने पल्टा खाया और अचानक इस अंधेरे का लाभ उठाते हुए कुछ कुत्सित प्रकृति के व्यक्तियों का जंजाल हमारे देश पर कब्ज़ा कर गया साथ ही हमारी हर क्रिया -प्रक्रिया को अपने हाथ में लेने का प्रयास करने लगा लेकिन जिस देश से सभ्यता से मानव सभ्यता का आरंभ हुआ हो वहाँ क्या कोई व्यक्ति या उनका समूह हमे परिस्थिति से नहीं उबार सकता था.? किंतु ये प्रश्न हमारे सामने था ही नहीं हमारे यहाँ उस समय की परिस्थिति से सामना करने के लिए क्रांतिकारियो की एक नक्षत्र माला तैयार हो चुकी थीइन्हीं नक्षत्र मलिका में सर्वोच्च स्थान था स्वातंत्रय वीर सावरकर जी का जो तन-मन-धन से धन के साथ देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए अग्निकुंड में जा बैठे थे और वीर भक्त प्रल्हाद की भांति निष्कलंक परतंत्रतारूपी होलिका का दहन करके चमकदार सोने की भांती हमारे बीच आ खड़े थे
प्रोफाइल स्नैपशॉट---

नाम – विनायक दामोदर सावरकर

जन्म- 28 मई 1883 ,ग्राम भागुर, जिला नासिक बम्बई प्रान्त ब्रिटिश भारत

मृत्यु- फ़रवरी 26, 1966 (उम्र 82) बम्बई, भारत

शिक्षा- कला स्नातक, फर्ग्युसन कॉलिज, पुणे बार एट ला लन्दन

क्या थे- क्रान्तिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, चिन्तक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता

उपलब्धि- क्रन्तिकारी संगठन “अभिनव भारत” की स्थापना, अखिल भारत हिन्दू महासभा के प्रेसिडेंट

एक महान समाज सुधारक ,हिंदुत्व के व्याख्याकार वीर सावरकर का जीवन अद्भुदता का अनोखा संगम हैं .

"भंगुर" जैसे अत्यंत छोटे कस्बे में28 मई, 1883 में जन्म लेने वाले बालक के माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर था.सावरकर बचपन से ही बागी प्रवृत्ति के थे। जब वे ग्यारह वर्ष के थे तभी उन्होंने ̔वानर सेना ̕नाम का समूह बनाया था। महाविद्यालय जाने लगे तभी उन्होंने सर्व प्रथम विदेशी कपड़ों की होली जलायी. लोकमान्य तिलक, शि.म. परांजपे की सिफ़ारिश से इंग्लैड में बेरीस्टर की पदवी धारण करने जाने वाला यह युवक उम्र के २५ वे साल में " सन ५७ का स्वतंत्रता युद्ध सिखों का इतिहास" जैसे ज्वालाग्रही ग्रंथ का निर्माण करता है, लेकिन दुर्भाग्यवश ग्रंथ के जन्म लेते ही जप्त हो जाता हैं
उनके राजनैतिक व सामाजिक कार्यों पर तो यदाकदा हमें पढने को मिल जाता हैं लेकिन एक व्याख्याकार के रुप में उन्होंने बडा महत्वपूर्ण कार्य किया हैं
हिंदुत्व के व्याख्याकार के रूप में:----

सावरकर जी के अनुसार धर्म का तात्पर्य परमार्थिक चर्चा या द्वैत अद्वैत का विवाद या चेतन अवचेतन की खोज नहीं हैं. धर्म कोई कृति शून्य भावना भी नहीं हैतो धर्म का तात्पर्य क्या हैं , वह सब कुछ जो हमारे देश का ,राष्ट्र का ,हमारे इतिहास का , हमारे हिंदुस्तान का गौरव बढाने वाला हो इसी आधार पर जो भी स्थितियाँ या अन्य तथाकथित धर्म ,धर्म स्वतंत्रता के विचार जो इस देश के गौरव वैभव , वृद्धि में बाधक हो उन्हें राष्ट्र हित में प्रतिबंधित कर देना उचित हैंऐसा उनका मत था इसी विशुद्ध राष्ट्रीय धारणा से सावरकर ने शुद्धि आंदोलन को देश के लिए एक अनिवार्यता के रुप में देखा. इतिहास के आधार पर ही अपने-अपने "धर्मान्तर अर्थात राष्ट्रांतर" का राजनैतिक -धार्मिक संबंधों वाला सिद्धांत प्रस्तुत किया१९२४ में सिंध मे मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के बलात मुसलमान बनाने का जो षडयंत्र रचा गया, उसका भी इस शुद्धि आंदोलन का महत्व जनता के सम्मुख उजागर कर दिया

मानसिक व बौद्धिक विकास के साथ ही सावरकर जी शारीरिक विकास की ओर भी पर्याप्त ध्यान देते थे.आपने रत्नागिरी के अखाडों का निरीक्षण कर "व्यायामोत्तेजक आंदोलन" आरम्भ कियानगरपालिका का अखाडाऔर अन्य अखाडों में कसरत करने वाले हिन्दू युवकों की गरीबी से अच्छी खुराक पाने में असमर्थ थे यह देखकर रत्नागिरी हिन्दुसभा ने गो ग्रास भिक्षा नामक संस्था से तीन गायों को देने का निवेदन किया गायों के प्राप्त होने पर आखाडों में कसरत करने जाने वालो युवकों को प्रतिदिन मुफ्त दूध दिया जाने लगा इस प्रकार सावरकर जी के प्रयासों से रत्नागिरी के युवकों मे अखाड़े के प्रति रुचि बढ़ने लगी

सन १९२८ के श्री गणेश उत्सव में सावरकरजी द्वारा निर्मित अखिल हिन्दुध्वज का आरोहण एक विषेश घटना मानी जा सकती हैं . उक्त ध्वज केवल नि:श्रेयस का बोधक न होकर भौतिक अदम्य का आदेश भी व्यक्त करता है. सावरकर जी ने विज्ञानवाद का खुलकर प्रचार किया उन्होंने पूर्ण प्रखरता से देश को आव्हान करते हुए कहा कि मनुस्मृति आदि हमारे प्राचिन ग्रंथ निश्चय ही उनके सृजनकाल में व्यवहारिक ग्रंथ थे परंतु उन्हें त्रिकाला बाधित सत्य मानना अनुचित होगा परिस्थिती सापेक्ष आचार धर्म ही वस्तुनिष्ठ धर्म संज्ञा को प्राप्त करता हैं अत: प्राचिन धर्मग्रंथो को हम अवश्य ही आदरणिय स्थान अर्पित करते हैं किंतु हर बार उन्हें अनुकरणिय नहीं माना जा सकता इसे विज्ञाननिष्ट धारणा से सावरकर जी ने जीवन संबंधित समस्त विषयों के बारे में व्यवहारों का सदा प्रतिपादन किया हैं अपनी इसी विज्ञाननिष्ठा के कारण सावरकर जी ने "यंत्र" के प्रयोग का आग्रह किया और गांघीजी के हस्तकरघा और यंत्र बहिष्कार को अनुचित बताया विज्ञानवाद के प्रचार की इस धारा में सावरकर जी का उपयोगितावाद, मानवतावाद तथा संसार के विकसित राष्ट्रों के समान भारत को सबल संपंन्न बनाने की विशुद्ध राष्ट्रीय धारणा विद्यमान थी

हिंदू समाज में जातिभेद का अपना अनाचार , धर्म के नाम पर चलता रहा है यह लज्जा और दूख का विषय है.सावरकर जी ने धर्मश्रद्ध हिन्दू समाज को अपने तर्कपूर्ण प्रभावी उद्बोधन और लेखन द्वारा हमेशा यह समझाने की भरपूर चेष्टा की है कि " धर्म का निवास स्थान पेट या उदर से नहीं वह तो ह्रदय से हैं यदि आप किसी अहिन्दू के साथ खान-पान करते है तो उससे आप का धर्म भ्रष्ट होने का कोई कारण नहीं हैं. उसी प्रकार आप हिन्दूओं मे से ही किसी तथाकथित अछूत जाति के व्यक्ति के साथ भोजन करते हैं तो किसी भी मौलिक धर्म सिद्धांत के अनुसार आपका वह सहभोज कर्म निषिद्ध तथा धर्म विरूद्ध नही हैं पर पुरातन पुराणपंथी लोग अपनी ही अवधारणा से चिपटे हैं

सावरकर जी ने हिंदुत्व की व्याख्या करते हुए सर्वप्रथम यह कहा है कि हिंदूओं में व्याप्त जातिवाद को ना मानने वाला वास्तविक हिंदू हैं और वही धर्म हिन्दूत्व होगा लेकिन उनकी इस व्याख्या को पुराणपंथी लोगो ने अपनी अंध धारणाओ के कारण अस्विकार कर दियाऐसी अवस्था में सावरकर जी ने तथाकथित अछूतों के साथ सहभोज को प्रत्यक्ष व्यवहार में उतारने का निश्चय किया सावरकर जी की दृष्टि से जन्म जात जातिभेद के समूलोच्छेदन का सबसे सरल और शीघ्र फलदायी तरीका यदी कोई था तो वह था एक साथ पंगत में बैठकर बिना किसी जातिगत भावना के भोजन करना सावरकर जी तो पूर्व से ही सहभोजक रहे हैंअंडमान में उन्होंने एक पूर्व भंगी मुसलमान को शुद्ध कर हिन्दू बनाकर भोजन के समय अपने बगल में बैठाया थारत्नागिरी के आरंभिक दिनों में जब सावरकर जी शिरगाँव में रहते थे तब ग्राम के चमार के यहाँ सत्य नारायण की कथा थी. चर्मकार ने उन्हें कथा में आने का निमंत्रण दियासावरकर जी अपने साथियों सहित चर्मकार के घर जा पहुँचे उन्होंने उक्त चर्मकार बंधु से जानना चाहा कि ग्राम के महार जाति बंधुओं को आमंत्रित किया हैं या नहीं ? चर्मकार के नकारात्मक उत्तर देने पर सावरकरजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे उसका निमंत्रण स्वीकार नहीं कर सकतेतुम ब्राम्हणों को श्रेष्ठ समझकर उन्हें आमंत्रित करना चाहते हो ,उनके साथ मेलजोल बढाना चाहते हो पर तथाकथित निम्न जाति से वैसी ही छुआछूत बरतते हो जैसी ब्राह्मण तुमसे बरतते हैं सावरकरजी द्वारा इस प्रकार कान उमेठने पर उस चर्मकार ने ग्राम के महारों को भी सत्य नारायण कथा में आमंत्रित किया सावरकर जी उनके साथी वहाँ बहुत समय तक ठहरे महारों के आने के उपरांत जन पंडित जी द्वारा प्रसाद वितरण किया जाने लगा तो सावरकर जी ने पुन: जजमान से कहा कि वह स्वयं के हाथों प्रसाद बाँटे

२० मई १९२९ को भी सावरकर जी ने मालवण जिला रत्नागिरी में आयोजित कोकण प्रादेशिक पाँच वी स्पृष्य परिषद में महार-चमारों की यज्ञोपवित समर्पित करने के अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था विगत सात पीढ़ियों से हम वेदोक्त के विवाद का पिष्टपेषण करते बैठते हैं. ये वेद लिजीए और ये यज्ञोपवित. बस! अब तो आप संतुष्ट हैं .जिन वेदों के पठन का अधिकार अहिंदू मलेच्छों को हैं वहीं अधिकार हिंदू महार चमारों को नहीं .आश्चर्य! यह सारा पाखंड हैंहम दोनों का यह सारा विवाद ही पाखंड हैंआओ अब इस पाखंडी विवाद को समाप्त कर हम और आप दोनों आज प्रायश्चित लेकर हमारे पूर्वजों के इस ध्वज की छांव में हिंदू बंधु बनकर एक रूप होकर रहे सावरकर जी की इस घोषणा से अभिभूत महार नेता सुबेदार घाटगे ने अपने उद्बोधन में कहा कि कौन कहता हैं कि महारों ने इस्लाम ग्रहण करना चाहिए? एक बार यह संभव है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय मुसलमान बन जाए पर हम महार- चमार कभी हिन्दु धर्म का परित्याग नहीं करेगे? एक अछुत नेता की यह घोषणा आज के परिप्रेक्ष्य में उतनी ही महत्वपूर्ण हैं

सह्भोजन के साथ खानपान संबंधी सावरकर जी द्वारा छोड़े गये तर्क शास्त्र को कुछ सुधारवादियों सनातनियों की इस सभा में छोड़ने की चेष्टा की, जिससे सनातनियों ने बडी घबराहट महसूस की जाने लगी क्योंकि यदि प्रकार के सिद्धांत को अपनाया जाता तो पुरोहितों के लिए रत्नागिरी का घर परिवार निषिद्ध हो जाता और उनका धंधा चौपट हो जाताअत: गरमा गरम चर्चा के साथ ही सभा को विसर्जित किया गया.सनातनियों के इस प्रतिक्रियावादि बहिष्कार निर्णय से अनेक सुधारवादियों को आरंभ में बहुत कष्ट हुए. परंतु उन्होंने आगे चलकर रास्ता खोज ही लिया. वे एक दूसरे के घर पौरोहित्य करे और इस प्रकार शैन:- शैन: पुरोहितों द्वारा घोषित बहिष्कार भी प्रभावहीन सिद्ध हुआ

सावरकर जी जब रत्नागिरी में अपना कार्य आरंभ किया तब अछूतों को जिनकी बस्तियाँ नगर के बाहर थी नगर में लाकर अपने साथ मंदिर या अन्य स्थान पर एकत्रित करना अत्यंत कठिन कार्य था इसका अनुभव कर सावरकर जी अपने साथियों को साथ लेकर उन अछूतों की बस्तियों में ही जाने लगे परन्तु अछुतों के मन में इतना भय समाया था कि उन्हें बार-बार बुलाने पर भी घर से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पाते थेअन्दर से कोई झूठ ही कह देते घर में नहीं हैं. स्वर्णो का अपनी अछुत बस्तियों में आना उन्हें अधर्म प्रतीत होता था, ऐसे में सावरकरजी अपने सहयोगियों के साथ अपनी दरी साथ लेकर उनके घर जाते , दरी बिछाते और वहाँ भजन करने लगते धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा और अछूत बस्तियों में जोरशोर से भजन होने लगे,साथ ही सावरकर जी उन अछुतों के साथ अपने नगर में आने लगे उनके साथ उसी प्रकार मुक्त व्यवहार करने लगे जैसा साधारण सवर्णों के साथ होता थाअछूत बस्तियों को स्वच्छ आकर्षक बनाने के उद्देश्य से सुधारवादी उनके कुओं में दवाई डालते, वहाँ झाडू-बुहारकर सफाई करते उन्हें साबुन देकर उनसे कपडे धुलवाते और उन्हें आँगन में तुलसी के तथा फलों रोपते थे

सावरकर जी के प्रति गलत फहमी फैलाने का धंधा इस देश के कुछ लोगों ने चला रखा हैं सावरकर जी के तत्वज्ञान में जातियता का कोई स्पर्श नहीं थाजो लोग जातीवादिता के समर्थक थे तथा राजकिय कार्य में भी जातियता को महत्व देते थे ऐसे लोगो का विरोध करने का कर्तव्य सिर्फ़ सावरकर जी ही निभा रहे थे भारतिय अल्पसंख्यकों के मुलभूत अधिकार को वे मान्य करते थे

सावरकर जी का हिन्दूत्ववाद केवल राज कारण के लिए मर्यादित नहीं था, हिन्दू समाज में हजारों वर्षो से जो चैतन्य हिनता आ गई थी इस चैतन्य को पुन: लाने के लिए सावरकर जी ने हिन्दूत्ववाद चलाया थाउनके हिन्दूत्व का तत्व ज्ञान सर्वस्पर्शी थासमाज के हर अंग का उन्होंने विचार किया हैं

सावरकर जी का वाद तात्कालिक तत्वज्ञान न होते हुए चिरंतन स्वरुप का तत्वज्ञान हैं प्रत्येक नागरिक का मातृभूमी पर नितांत प्रेम होना चाहिए भारत के हर अंग पर हिंदू संस्कृति व हिंदू समाज की छाप होना चाहिए.हिन्दू बहुसंख्यक हैं ये अपना राष्ट्रीय आधार होना चाहिए सावरकर जी के इस तत्वज्ञान को किसी भी सरकार के सत्ता में होने पर यदि राष्ट्र इस दृष्टि से बलिष्टता से के साथ चलाना हो तो सावरकर जी के इस हिन्दूत्व वाद की रस्सी को पकड कर चलना होगा

सावरकर जी का हिन्दूत्व तत्वज्ञान अखंड रहेगा क्योंकि यह इतिहास सिद्ध हो चुका हैं कि किसी के विचारों के मिलन से उन्होंने इस तत्व ज्ञान का निर्माण नहीं किया मानव समूह के स्वभाव व उनके परस्पर सम्बंध से इस तत्वज्ञान की निर्मिती हुई थी उनके तत्वज्ञान के अंदाज कभी गलत नहीं होंगे, यदि अपना राष्ट्र इस तत्वज्ञान को शिरोधार्य करले तो देश में कभी ऐसी परिस्थितियाँ नहीं आएँगी जब देश को अपना सिर नीचे नहीं झुकाना पडे

इतिहास सिद्ध इस हिन्दू तत्वज्ञान ही स्वातन्त्रय वीर सावरकर की भारतिय समाज को देन हैं और यही देन भारत की रक्षा हर पग करेंगा ,उसे हर क्षेत्र में विजय के प्रति प्रेरित करेगा ऐसे तेजस्वी महापुरूष वीर सावरकर ने हिंदुत्व की जो देन हमारे राष्ट्र को दी हैउसकी स्मृति में मेरी श्रद्धाँजलीशत शत सुमन


मौलिक व अप्रकाशित

© नयना(आरती)कनिटकर

२६४ रचना नगर, गोविंदपुरा

भोपाल. ४६२०२३

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बहुत अच्छा. आज तक सावरकर जी के व्यक्तित्व के इस पहेलु पर किसीने प्रकाश नहीं डाला. उनके मुताबिक धर्म का मतलब राष्ट्र प्रेम व सामाजिक समानता. नयनाजी ने उनके व्यक्तित्वके अनभिज्ञ पासों को सटीक उजागर किया किय

22 अगस्त 2018

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