नारी का त्याग
त्याग’ की परिभाषा को यदि बारीकी से किसी ने समझा है तो वह है एक औरत। वह चाहे दुनिया के किसी भी कोने में रहती हो, किसी भी धर्म एवं मज़हब को मानती हो, लेकिन त्याग का धर्म उसे बचपन से ही सिखा दिया जाता है। शायद उसके खून के एक-एक कण में त्याग नामावली बस चुकी है, तभी तो जन्म से लेकर मरण तक हर पल अपनी खुशियों एवं तमन्नाओं का त्याग करना सीखा है नारी ने।
रीति-रिवाज का जिम्मा
केवल भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी कोने में ज़रा नज़र घुमा कर देखें आपको ऐसे कई रीति-रिवाज जरूर मिल जाएंगे, जिसमें त्याग का बीड़ा एक स्त्री को उठाना पड़ता है। कई बार तो इस त्याग का प्रभाव इतना गहरा होता है कि बेचारी उस महिला को यह पूछने का भी मौका नहीं मिलता कि ‘ऐसा उसके साथ क्यों हो रहा है’?
संस्कृतियों एवं रिवाज़ों में बंधी यह महिलाएं बस त्याग करना सीखती हैं। पति की मृत्यु के बाद खुद का त्याग कर देना भी एक ऐसा तथ्य है जो महिलाओं के लिए अभिशाप बनकर रह गया है।
सती प्रथा जैसा उदाहरण
वर्षों पहले हिन्दू इतिहास ने ‘सती प्रथा’ जैसी घटनाओं को अपने किताब के पन्नों में जगह दी है। यह एक ऐसी क्रूर प्रथा थी जिसकी कल्पना भी कोई स्त्री नहीं करना चाहती। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव से जुड़ी है यह प्रथा, महाभारत के राजा पाण्डु की पत्नी माद्री ने भी उनके साथ सती होने का निश्चय किया था।
लेकिन खत्म हुई यह प्रथा
शायद यही कुछ ऐसी घटनाएं थी जिसने सती प्रथा को भारतीय सिद्धातों में पनाह दी, लेकिन एक समय ऐसा आया जब धीरे-धीरे यह प्रथा विलुप्त हो गई। हालांकि आज की विधवा महिला को भी कुछ ऐसे नियम-कायदों का पालन करना पड़ता है जो उसके लिए पांव में बंधी बेड़ियों के बराबर हैं।
विधवा की ज़िंदगी
केवल पति की मृत्यु का शोक ही उसके लिए काफी नहीं होता, उसके बाद उसका अकेलापन अन्य कट्टर रिवाज़ों से बंधकर उसे पल-पल मारता है। और इसी घुटन में वह स्त्री सोचती है कि काश इससे अच्छा तो वह अपने पति के साथ ही सती हो जाती।
एक विधवा के लिए हिन्दू मान्यताओं में खास नियम बनाए गए हैं। उसे दुनिया भर के रंगों को त्याग कर सफेद साड़ी पहननी होती है, वह किसी भी प्रकार के आभूषण एवं श्रृंगार नहीं कर सकती। इतना ही नहीं, जो लोग कट्टर तरीके से इन नियमों का पालन करते हैं, वे विधवाएं तो शाम को सूरज ढलने के बाद अनाज का एक निवाला भी निगलती नहीं हैं। इसका तो यही अर्थ हुआ कि वह अपनी इच्छानुसार कोई कार्य नहीं कर सकतीं। उन्हें आखिरी श्वास तक भगवान को याद करके अपना बचा हुआ जीवन व्यतीत करने को मजबूर किया जाता है।
आप सोच रहे होंगे कि आज के आधुनिक युग में यह सब कहां होता है। आजकल तो पति की मृत्यु के कुछ समय के पश्चात महिलाएं दूसरा विवाह करके अपना आगे का जीवन सुखपूर्वक चलाने की कोशिश करती हैं। परन्तु सच मानिये आज भी देश के कई हिस्सों में एक विधवा को बोझ मानकर घर के एक कोने में फेंक दिया जाता है।
व्यर्थ के समान जीवन
उसका जीवन पति के मरने के बाद व्यर्थ है ऐसा उसे बार-बार महसूस कराया जाता है। पर क्यों? एक विधवा से उसके अधिकार, उसके रंग एवं श्रृंगार को छीन लेने का क्या अर्थ है? क्या हमारे शास्त्र हमें इस बात की सलाह देते हैं?
वेदों में नहीं है वर्णन
नहीं... आप जानकर यह हैरानी होगी कि वेदों में एक विधवा को सभी अधिकार देने एवं दूसरा विवाह करने का अधिकार भी दिया गया है। वेदों में एक कथन शामिल है – “उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि । हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ।“
इसका अर्थ है कि पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा उसकी याद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दे ऐसा कोई धर्म नहीं कहता। उस स्त्री को पूरा अधिकार है कि वह आगे बढ़कर किसी अन्य पुरुष से विवाह करके अपना जीवन सफल बनाए।
लेकिन हमारा समाज इस बात को नहीं मानता। सामाजिक नियमों के अनुसार पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा रंगीन वस्त्र नहीं पहन सकती, कोई श्रृंगार नहीं कर सकती, किसी प्रकार के आभूषण धारण नहीं कर सकती बल्कि वह स्त्री उन सभी नियमों के साथ बंध जाती है जो उसे विधवा धर्म सिखाते हैं। पति के जीवित होते हुए जिस प्रकार से वह खुद को सुंदर बनाकर रखती थी, उसके जाने के बाद उसे उससे भी ज्यादा खुद को बदसूरत बनाने के लिए कहा जाता है। कुछ संस्कारों में तो एक विधवा का मुंडन भी किया जाता है।
अनेक कारण
ऐसा करने के पीछे कई सारे सामाजिक एवं वैज्ञानिक कारण दिए जाते हैं। कहते हैं कि एक इंसान जितना साधारण होगा, कम आकर्षक होगा उतना ही लोग उस पर कम ध्यान देंगे। और एक विधवा को सबकी नज़रों से, खासतौर से पराए मर्दों की नज़रों से बचकर रहने की सलाह दी जाती है।
क्योंकि पति की मृत्यु के बाद इस समाज में उसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है। कम से कम तब तक नहीं जब तक वह पुन: विवाह नहीं कर लेती। इसलिए उसे सफेद साड़ी एवं बिना किसी श्रृंगार के रहने की सलाह दी जाती है।
एक नारी का श्रृंगार उसे चंचल बनाता है। यह उसकी सुंदरता ही तो है जिसकी बदौलत एक पुरुष उसकी ओर आकर्षित होता है। लेकिन एक विधवा को सबकी निगाहों से छिपकर रहना होता है। यह शायद हमारे समाज की मानसिकता ही है कि यदि कोई स्त्री रंग-बिरंगे कपड़े पहने खड़ी होगी तो उसे ज्यादा लोग देखते हैं।
बदसूरत बनने को मजबूर
लेकिन कोई असुंदर एवं बेहद कम आकर्षक महिला पास से गुजरे तो लोग उसे देखना भी नहीं चाहते। लेकिन पश्चिमी देशों में ऐसा कभी नहीं होता। वहां की मानसिकता एवं भारतीयों की मानसिकता में काफी अंतर है।
यह सच है कि हमारे द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों के रंग हमारे चरित्र पर एक गहरा असर करते हैं। लाल रंग हमें भड़काऊ बनाता है तो नीला सकारात्मक दृष्टि प्रदान करता है। हरा रंग मानसिक संतुलन देता है तो सफेद शांति का प्रतीक माना जाता है। शायद यही कारण है कि एक विधवा को सफेद रंग पहनने की सलाह दी जाती है ताकि वह दुख के इस समय में खुद को शांत रखने की कोशिश कर सके। साथ ही इस शांत व्यवहार से वह विधवा प्रभु में अपना ध्यान भी आसानी से लगा सकती है।
कपड़ों के अलावा एक विधवा के खान-पान के तरीके में भी बड़ा बदलाव किया जाता है। शास्त्रों की मानें तो एक विधवा स्त्री को बिना लहसुन-प्याज वाला भोजन करना चाहिए और साथ ही उन्हें मसूर की दाल, मूली एवं गाजर से भी परहेज रखना चाहिए।
सिर्फ इतना ही नहीं उनके लिए भोजन में मांस-मछली परोसना घोर अपमान व पाप के समान है। उनका खाना पूरी तरह सात्विक होना चाहिए। और शाम को सूरज ढलने के बाद वह पानी के अलावा कुछ ग्रहण नहीं कर सकती।
परन्तु कब आएगा बदलाव
यह कड़े नियम आज देश के सभी तो नहीं लेकिन कुछ हिस्सों में विधवा के लिए एक अभिशाप के समान कायम हैं। जिससे वह उबरना चाहती है और अपने जीने का एक मकसद ढूंढ़ना चाहती है। परन्तु शास्त्रों एवं धर्म के नाम पर यह समाज एक विधवा को आज़ादी की उड़ान शायद ही कभी भरने दे।
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