स्वान्तःसुखाय छुटपुटिया कवि।
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जब लगे कि अस्त हो तुम,जब लगे कि पस्त हो तुम,थकी सी हों मांसल भुजाएँ,शून्यवत धमनी शिरायें।जब लगे कि गिर पड़े हो,बीच डग में लड़खड़ाए मात खाये,जब लगे कि शून्य हो तुम,फ़ैक्टोरियल की खोज करना,और फिर एकांक बनकर
अस्तांचल की ओर दिख रहा आशाओं का सूरज अब, मेरी तेरी क्रोध अनल भी जागेगी तो आखिर कब? क्या गलती थी उस बिटिया की इस जग की बिटिया होने में, गूंज रही हैं जिसकी आहें निस्तब्ध निशा के कोने में। हे