अस्तांचल की ओर दिख रहा आशाओं का सूरज अब,
मेरी तेरी क्रोध अनल भी जागेगी तो आखिर कब?
क्या गलती थी उस बिटिया की इस जग की बिटिया होने में,
गूंज रही हैं जिसकी आहें निस्तब्ध निशा के कोने में।
हे समाज के पार्थसारथियों अब और नही बर्दाश्त करो,
चहुँओर बेटियों की चींखें हे पार्थसारथी शस्त्र धरो।
क्या अंतर्मन भी शून्य हो चुका, चेतना तुम्हारी सोई है,
अखबारों के हर पन्ने पर हम सबकी बिटिया रोई है।
निरुपाय नहीं कुछ भी यदि चेतना हमारी समवेत रहे,
भयमुक्त रहे बेटी सबकी ऐसी समाज की भेंट रहे।
अघ सरिता निर्बाध बह रही, क्या तुमको इसकी परवाह नहीं?
दारुण आलाप-द्रवित हृदयस्थल, क्या यह सुनने की चाह रही।
हे! संसृति के शान्तिपुत्रों अब सहनशीलता खत्म करो,
नारी मर्यादा के खातिर हे! पार्थसारथी शस्त्र धरो।
समन्वित शक्ति सकल संवेग, लगा दो अपना सारा तेज।
निर्भय होवें बेटी समाज में, नर-असुरो को कर दो निस्तेज।
ये शब्द नहीं न व्यथा कथा है, न बेटी की आत्मकथा है
शर्मनाक से भी बदतर,कलुषित हम सबकी दुर्बलता है।
सृष्टि का सबसे सुंदर फूल क्या इस गति का अधिकारी है?
क्या गिद्ध दृष्टि के पार नहीं इक बेहतर दुनिया हमारी है?
इन गिद्धों के खातिर हममें हर एक सुदर्शनधारी है।
हे! समाज के पार्थसारथियों अब जगने की बारी है।
अब जगने की बारी है.....