सर्दी की सुबह घने कोहरे में कुछ कदम ही चला था, कुछ जानी पहचानी सी सुगंध उठी। रास्ते में देखने को कुछ भी न था, चारो ओर बस कोहरा ही कोहरा। शहर की खामोशी में कुछ आवाजें जो कभी अज़ान होती और कभी मंदिर से उठते घंटियों के स्वर। अचानक उन आवाजों के मध्य अंतराल में मन के भीतर विचारों का शोरगुल कहां कुछ सुनने देता है? कहां कुछ देखने और समझने देता है? जिंदगी के कितने साल इन मूढ़ता भरे विचारों से किसी स्वप्न की भांति बहते चले गये और अंत में बचे मात्र कुछ अनुत्तरित प्रश्न। जिनके उत्तर शब्दों द्वारा, विचारों द्वारा प्राप्त होना संभव नहीं। इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के माध्यम तो बहुत हैं और शब्द भी किन्तु निष्कर्ष कहीं भी नहीं..... ऐसा क्यों? यह भी उन घंटियों के स्वरों और अज़ान की पुकार के उस लघु अंतराल में प्राप्त हो जाता है जिसमें मात्र क्षणभर के लिए दिल कह उठता हैः-
दौड़ता हूं अंतहीन राहों पर,
बेतरतीब-बेइन्तहां....
थक जाता हूं दौड़कर जब,
बैठ जाता हूं उन्हीं राहों पर....
करके बंद आंखें,
फिर देखता हूं वो सब....
जो खुली आंखों से,
देख न पाया कभी....
खामोशी के उस मंज़र में,
बूंद गिरती ओंस की जब चेहरे पर....
छूता भी नहीं उसको,
वो बिखर न जाये कहीं....
फिर जैसे ही मन के उस अंतराल से बाहर निकला तो अज़ान की उस पुकार जिसकी लय में बहते हुए मन यह समझने लगा -
अज़ान निकलती है दिल से बिना किसी आवाज़,
जो सुन लेता है वो खुदा,
जो कभी अज़ान है तो कभी सांस है मेरी....
यूं ही चलते-चलते कुछ मधुर अहसासों और अनुभूतियों में न जाने कब रास्ता गुजर गया और मैं अपने गंतव्य तक पहुंच गया पता ही न चला। शायद जिंदगी का सफर भी ऐसे ही किसी छोटे से सफर की तरह ही है जो अच्छे-बुरे अहसासों और अनुभूतियों से भी परे किसी अनजान और अनछुये गंतव्य तक ले जाता है, जहां हर किसी को जाना ही है। समझकर या फिर बेसमझे....!