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वो इक कराह... जिससे दिल महक उठा

13 सितम्बर 2022

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सर्दी की सुबह घने कोहरे में कुछ कदम ही चला था, कुछ जानी पहचानी सी सुगंध उठी। रास्ते में देखने को कुछ भी न था, चारो ओर बस कोहरा ही कोहरा। शहर की खामोशी में कुछ आवाजें जो कभी अज़ान होती और कभी मंदिर से उठते घंटियों के स्वर। अचानक उन आवाजों के मध्य अंतराल में मन के भीतर विचारों का शोरगुल कहां कुछ सुनने देता है? कहां कुछ देखने और समझने देता है? जिंदगी के कितने साल इन मूढ़ता भरे विचारों से किसी स्वप्न की भांति बहते चले गये और अंत में बचे मात्र कुछ अनुत्तरित प्रश्न। जिनके उत्तर शब्दों द्वारा, विचारों द्वारा प्राप्त होना संभव नहीं। इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के माध्यम तो बहुत हैं और शब्द भी किन्तु निष्कर्ष कहीं भी नहीं..... ऐसा क्यों? यह भी उन घंटियों के स्वरों और अज़ान की पुकार के उस लघु अंतराल में प्राप्त हो जाता है जिसमें मात्र क्षणभर के लिए दिल कह उठता हैः-
दौड़ता हूं अंतहीन राहों पर,
बेतरतीब-बेइन्तहां....
थक जाता हूं दौड़कर जब,
बैठ जाता हूं उन्हीं राहों पर....
करके बंद आंखें,
फिर देखता हूं वो सब....
जो खुली आंखों से,
देख पाया कभी....
खामोशी के उस मंज़र में,
बूंद गिरती ओंस की जब चेहरे पर....
छूता भी नहीं उसको,
वो बिखर जाये कहीं....
फिर जैसे ही मन के उस अंतराल से बाहर निकला तो अज़ान की उस पुकार जिसकी लय में बहते हुए मन यह समझने लगा -
अज़ान निकलती है दिल से बिना किसी आवाज़,
जो सुन लेता है वो खुदा,
जो कभी अज़ान है तो कभी सांस है मेरी....
यूं ही चलते-चलते कुछ मधुर अहसासों और अनुभूतियों में न जाने कब रास्ता गुजर गया और मैं अपने गंतव्य तक पहुंच गया पता ही न चला। शायद जिंदगी का सफर भी ऐसे ही किसी छोटे से सफर की तरह ही है जो अच्छे-बुरे अहसासों और अनुभूतियों से भी परे किसी अनजान और अनछुये गंतव्य तक ले जाता है, जहां हर किसी को जाना ही है। समझकर या फिर बेसमझे....! 

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रचनाएँ
वो इक कराह... जिससे दिल महक उठा
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रात की चांदनी में चहलकदमी करते हुए ईदगाह के सामने से गुजरा तो एक साया सीढि़यों पर बैठे हुए देखा। देखकर अनदेखा करने की ख्वाहिश तो हुई मगर उनकी चमक खुद-ब-खुद उस ओर खींच गई। मन में कौतूहल उठा चलो देखें तो सही आखिर माज़रा क्या है? थोड़ा ध्यान दिया तो अनजान सा लगने वाला साया कुछ जाना पहचाना लगने लगा, मन में डर का नामोनिशां तक न था। आखि़र खुदा के दर पर जो था, मैं और वो इक साया। धीमी सी कुछ सिसकियां जब मेरे कानों पर पड़ी तो दिल के तार अंदर तक हिल गये। इतनी मार्मिक वेदना थी उस कराह में। धीरे-धीरे जानने की पीड़ा जोर पकड़ने लगी। मन में तरह-तरह के ख्यालों ने घेरा डालना शुरू कर दिया कि आखिर कौन हो सकता है वो। जो अनजान होकर भी न दिखने वाली किसी डोर से खीचा चला जा रहा है और रूह को डर की बजाये कुछ ऐसी खामोशी पकड़ने लगी और दिल खुद-ब-खुद कहने लगाः- . अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही था।। . रोते थे वो मेरी खातिर, सोता था मैं भूल उनको। गिरा जब अर्श से नीचे, संभाला उनने ही था।। . भूल कर फिर उनको, दगा करा मैंने। जख्म खुद को देकर, हरा किया मैंने।। . रोये वो मेरी खातिर, दवा दी मुझको। जुल्म सहे खुद पर, रज़ा दी मुझको।। . अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही था।।
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वो इक कराह

13 सितम्बर 2022
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रात की चांदनी में चहलकदमी करते हुए ईदगाह के सामने से गुजरा तो एक साया सीढि़यों पर बैठे हुए देखा। देखकर अनदेखा करने की ख्वाहिश तो हुई मगर उनकी चमक खुद-ब-खुद उस ओर खींच गई। मन में कौतूहल उठा चलो देखें त

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वो इक कराह... जिससे दिल महक उठा

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सर्दी की सुबह घने कोहरे में कुछ कदम ही चला था, कुछ जानी पहचानी सी सुगंध उठी। रास्ते में देखने को कुछ भी न था, चारो ओर बस कोहरा ही कोहरा। शहर की खामोशी में कुछ आवाजें जो कभी अज़ान होती और कभी मंदिर से

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तारा

23 अक्टूबर 2022
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आसमान का तारा हूँ मैं,चमक है फीकी सी,और कुछ बेजान,कही गुमनाम सा,तारो की भीड़ मे,खोया हुआ धूल भर सा,ही तो हूँ,मुस्कुराता हुआ – हँसता हुआ,इस खामोश आसमान मे,टिमटिमाता हूँ कभी,और कभी गुम हो जाता हूँ,दूर

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