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वो इक कराह

13 सितम्बर 2022

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रात की चांदनी में चहलकदमी करते हुए ईदगाह के सामने से गुजरा तो एक साया सीढि़यों पर बैठे हुए देखा। देखकर अनदेखा करने की ख्वाहिश तो हुई मगर उनकी चमक खुद-ब-खुद उस ओर खींच गई। मन में कौतूहल उठा चलो देखें तो सही आखिर माज़रा क्या है? थोड़ा ध्यान दिया तो अनजान सा लगने वाला साया कुछ जाना पहचाना लगने लगा, मन में डर का नामोनिशां तक न था। आखि़र खुदा के दर पर जो था, मैं और वो इक साया। धीमी सी कुछ सिसकियां जब मेरे कानों पर पड़ी तो दिल के तार अंदर तक हिल गये। इतनी मार्मिक वेदना थी उस कराह में। धीरे-धीरे जानने की पीड़ा जोर पकड़ने लगी। मन में तरह-तरह के ख्यालों ने घेरा डालना शुरू कर दिया कि आखिर कौन हो सकता है वो। जो अनजान होकर भी न दिखने वाली किसी डोर से खीचा चला जा रहा है और रूह को डर की बजाये कुछ ऐसी खामोशी पकड़ने लगी और दिल खुद-ब-खुद कहने लगाः-
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अनजान समझा जिन्हें,
वो मेरा अपना ही था।
दर्द गहरे थे उनको,
जख्म अपना ही था।।
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रोते थे वो मेरी खातिर,
सोता था मैं भूल उनको।
गिरा जब अर्श से नीचे,
संभाला उनने ही था।।
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भूल कर फिर उनको,
दगा करा मैंने।
जख्म खुद को देकर,
हरा किया मैंने।।
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रोये वो मेरी खातिर,
दवा दी मुझको।
जुल्म सहे खुद पर,
रज़ा दी मुझको।।
.
अनजान समझा जिन्हें,
वो मेरा अपना ही था।
दर्द गहरे थे उनको,
जख्म अपना ही था।।
.
थोड़ी देर हुई मैं यूं ही खड़ा रहा किसी बुत की माफिक। फिर उन्होंने आंख उठाई जिसकी तेज उजली रोशनी के बीच उन आंसू की बूंदों को देखकर समय रोक देने का दिल हुआ। ऐसी कशिश थी उन आंखों में, जिसमें हर कोई डूब जाना चाहे। उजले केशों ने उनको और भी दिलकश सा दिया था बना। जिनकी तारीफ में लफ्ज़ खत्म हो जाते हैं। दिल में जो सवाल उठ रहे थे मेरे खामोश लबों से खुद-ब-खुद दिल का हाल जान फिर उन्होंने कहाः-
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आता हूं रोज दर पर नमाजी बनकर,
मिलते हैं कुछ नमाजी तो कुछ समाजी।
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कुछ करते दिखते इबादत उसकी,
कुछ करते दिखते हूज़ूरे इबलिस।
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रोता हूं उनकी खातिर,
जिनका मुझसे न कोई वास्ता।
देखता हूं जब मैं उनका आखिरी रास्ता,
तड़पता हैं तब दिल मेरा उनकी खातिर,
जिनके लिए मैं अब कुछ भी नहीं।
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चाहता हूं उन सबको पनाह में लेने अपने,
चाहते हैं मुझको, देखते जो सपने।
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खुला दिल मेरा और खुला घर भी है,
चाहो जब आ जाना मिलने मुझसे।
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मिलूंगा यहीं बैठा तुझको,
बस दिल को पहले साफ जरूर करना।
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फिर अगली सुबह जब दुबारा उस ओर गया तो उनकी मौजूदगी का अहसास दिल ने खुद ऐसे किया जैसे पानी पीने के बाद प्यास बुझने का अहसास। फिर दिल में सूकूं की ताजगी भर गई कि कम से कम मैं तो उनके दर्द को समझता हूं। क्या आप भी शामिल हैं उनके प्यारों की कतार में...? 

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रचनाएँ
वो इक कराह... जिससे दिल महक उठा
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रात की चांदनी में चहलकदमी करते हुए ईदगाह के सामने से गुजरा तो एक साया सीढि़यों पर बैठे हुए देखा। देखकर अनदेखा करने की ख्वाहिश तो हुई मगर उनकी चमक खुद-ब-खुद उस ओर खींच गई। मन में कौतूहल उठा चलो देखें तो सही आखिर माज़रा क्या है? थोड़ा ध्यान दिया तो अनजान सा लगने वाला साया कुछ जाना पहचाना लगने लगा, मन में डर का नामोनिशां तक न था। आखि़र खुदा के दर पर जो था, मैं और वो इक साया। धीमी सी कुछ सिसकियां जब मेरे कानों पर पड़ी तो दिल के तार अंदर तक हिल गये। इतनी मार्मिक वेदना थी उस कराह में। धीरे-धीरे जानने की पीड़ा जोर पकड़ने लगी। मन में तरह-तरह के ख्यालों ने घेरा डालना शुरू कर दिया कि आखिर कौन हो सकता है वो। जो अनजान होकर भी न दिखने वाली किसी डोर से खीचा चला जा रहा है और रूह को डर की बजाये कुछ ऐसी खामोशी पकड़ने लगी और दिल खुद-ब-खुद कहने लगाः- . अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही था।। . रोते थे वो मेरी खातिर, सोता था मैं भूल उनको। गिरा जब अर्श से नीचे, संभाला उनने ही था।। . भूल कर फिर उनको, दगा करा मैंने। जख्म खुद को देकर, हरा किया मैंने।। . रोये वो मेरी खातिर, दवा दी मुझको। जुल्म सहे खुद पर, रज़ा दी मुझको।। . अनजान समझा जिन्हें, वो मेरा अपना ही था। दर्द गहरे थे उनको, जख्म अपना ही था।।
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रात की चांदनी में चहलकदमी करते हुए ईदगाह के सामने से गुजरा तो एक साया सीढि़यों पर बैठे हुए देखा। देखकर अनदेखा करने की ख्वाहिश तो हुई मगर उनकी चमक खुद-ब-खुद उस ओर खींच गई। मन में कौतूहल उठा चलो देखें त

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