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22 नवम्बर 2022

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आदरणीय, दहेज महोदय,

सादर दण्डवत् प्रणाम्।

मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है, कि आप में वह सभी गुण व्याव्त है, जो कि एक महात्मा, मानवता साधतु, इंसानियत में होना चाहिए। खेद है, आप को कुछ लोग अभिशाप कहकर पुकारतें है वे षायद यह नही जानते कि आपमें कितना बल है कितनी बुध्दि है कितना विवके है, कित शक्ति और क्षमता है। मैं तो आपको वरदान समझता हूॅ, क्योंकि आप रोते हुये को हॅसा देते है और हॅसते हुये को रूला देते हैं। बंधु आप में कितना वल है, कि आपकी जड़ दिन - दूनी रात - चैगनी और अधिक गहराइयों तक पहुॅचती जा रही है । और आपका व्यारा नाम आज हर मुख में है, आपकी पैठ करोड़ो के अन्तस्थल में है,  आपकी छाया हरेक अंतरात्मा में हैं आप तिनके- तिनके में हैं रोये- रोये में है पल - पल में है आपको क्षण - क्षण मे हैं दिल - दिल में हैं मुख - मुख में है अर्थात आप सर्वव्यापी हैं मुझे हार्दिक हर्ष हो रहा है कि आप मेरा भी राम नाम सत्य करनें जा रहें है खैर कोई बात नही आपसे मेरा यही निवेदन है कि मेरी आवरू बच जाय बष। षेष मिलने पर, आपका हो ’’दीनानाथ’’

’’स्र्वागांचल’’

दीनानाथ अब बंद करने को ही थे कि,उनकी पत्नी शशि नें आकर कहा- क्यो जी, अंधेरा हो गया, और तुम अभी तक बैठे - बैठे क्या लिख रहे हो ?

दीनानाथ जैसे सोते से जगे वोले - अरी शशि, क्या बतॅाऊ क्या लिख रहा हॅू, क्या नहीं लिख रहा हॅू। इतना कहते हुये वो पत्र को जेब में न डालकर एक पुस्तक में दबाकर रख दिये, और खपरैल कुटिया की तरफ ताकनें लगे।

शशि नें झल्लाकर व्यंग्य किया- अरे बुद्धू राम आखिर देखू तो क्या है ? उसने एक ही सांस में कह डाला - हां दिखोओ गे भी क्यों ? किसी पंेमिका का होगा, हाॅ भइ ऐसे पत्रों को न ही दिखाओ तो भला है।

प्रेमिका ! यह शब्द सुनते ही दीनानाथ विगड़े मानों नर्म हृदय पर कोई कठोर हथौड़े से चोट कर दिया हो अपनी छोटी -छोटी आंखे तरेर कर बोले - हाॅ प्रमिका का ही है तो क्यो दिखाऊं यह क्यों नही कहती हो, कि  मैं अपना करम लिख रहा था । लो देख लो फिर हमारा सिर मत खाना।

शशि झपट्टा मारतें हुए धम- धम बाहर निकलते हुय आंखे घूरकर बोली - अजी! तुम्हारे सिर को खाये कौवे और गीध हम क्यो खायें। और षब्द तो लगा नही है कि उसको चाहू भी।

दीनानाथ दोनों हाथ कपार पर रखकर बैठ गये और एक गहरी सांस ली। जैसे कोई पिता, पुत्र शोक मे करूण रूदन न कर सिर्फ आहें भर - भर कर रह जाता हो और वही ग्लानि वही क्षोभ उसकी छोटी -छोट श्वासों को खीचकर लम्बी कर देता है। ऐसी ही ग्लानि दीनानाथ के सिर पर भी सवार थी ग्लानि कैसी ? उसके पत्नी कै धौस से उत्पन्न ग्लानि।

दीनानाथ अपनी पत्नी के झल्लाने पर क्रोध नही करते बल्कि उनको तरह - तरह की ग्लानियों और दुःखो का सामना करना पड़ता है। वे सोचते हैं जिस पर हमें अधिकार जमाना चाहिये, वो हमारे ऊपर जमाये। यदि पांव मेरे कहने के अनुसार न चलें, आंखे हमारी स्वेच्छा से न देखें तो टूट जाये ऐसे पैर, और फूट जाॅय ऐसे नेत्र।

अभी वो नाना प्रकार के मिश्रित विचारो में गोता लग ही रहे थे कि सहसा गौषाले से एक ऐसी आवाज आई जिसमे मातृत्व नीरत्व, नारीत्व देवीत्व करूणा श्रध्दा, ममता , कोमलता और वत्सलता का मिश्रण था- बेटा ओ बेटा उठो अब सांझ हो गई हैं। गाय गोरू आ गये। दीनानाथ नें इस पूरे वाक्य को तो नही सुना, लेकिन गाय- गोरू आ गये इसको सुन लिया और सिर पर लटकी हुई दीवाल घड़ी पर नजर डाला तो पांच वज चुके थे उन्होने अनुमान लगाया हाॅ सांझ तो हो गई.........। और उस पत्र को जिसको करीब दस - पन्द्रह मिनट पहले शशि के चरणों में पटक दिये थे उठाकर एक पुस्तक में दबा दिये, और बाहर निकले।

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