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संध्या (उपन्यास)

22 नवम्बर 2022

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भूमिका

संध्या, प्रभात को प्रेयासी,संध्या जीवन को दो भागों में बांट लेने वाली संध्या सुदृढ़ सव्ठोनी संध्या, पर नियति ऐसी कि प्रेमी के उपस्थित होते ही स्वंय को तिरोहित कर देती है,जो क्योंकि प्रभात और संध्या की बीच भी तो कोई है- रात्रि जो कि तन के गौर मन के काले कमल का प्रतीक है।

जिंदगी भर माॅ के लिये तड़पती संध्या अंततः उसी तरह विलीन हो गई जिस प्रकार सांझ अपनें अस्तित्व को थोड़ा सा ही कायम कर पाती है। संध्या उपन्यास का नामकरण नायिका के नाम पर ही किया गया है। संध्या नाम प्रतीकात्मक है, जिससे मान होने लगता है, संकेत मिलने लगता है कि यह कितने कम समय के लिये समाज में आयी और कितनी तीव्रता से इसको अलोप भी हो जाना है। लेखक की कष्ठम से निकला यह उपन्यास अपनी मानवीय संवेदना के कारण हमारा ध्यान अपनी ओ आकृष्ट कर पाने में सफल हो पाता है। यह रानी जीवन की मात्र विवष्ता को नही दर्षाता वरन् उसके साथ न जानें कितनी छोटी - बड़ी समस्यायों और उनके निवारण का संकेत भी प्रदान करता है।

ग्राम - गवई का वातावरण और उसमें पलती एक गवई किशोरी संध्या के जीवन के इर्द - गिर्द घूमती यह कथा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप् में दहेज की मार्मिक कथा कहनें का प्रयास करती है साथ ही कई जिन्दगी के पहुलओं को भी कुषल चितेरे की तरह लेखक नें उकेरनें का प्रयास किया है। दहेज की समस्या आदिकल से चली आ रही जीवन की समस्या को जिसको सटीकता से प्रस्तुत करनें का प्रयास लेखक के द्वारा किया गया है। संध्या जो कि उपन्यास की नायिका भी है उसके द्वारा उस पिषाच से लड़ने का प्रयास तो बहुत किया गया है, पर अन्ततः प्राणों की वलि देकर वह इससे लड़ने में कुछ हद तक सफल दिखाई पड़ती है। वातावरण को समुन्नत हरा - भरा बनानें के किस प्रकार के पेड़- पौधे हमारी मद्द करते है उस पहलू मे को भी इस उपन्यास की नायिका तत्पर होती है तो बहुत से लोग उसका साथ देंने को किस प्रकार बढ़ते है, यह विचारणीय है। समाज नें हम सवको अवगत करानें का प्रयास किया है।

आधुनिक राजनीति का चित्र भी इस उपन्यास में वतलाया गया है जो छोटे से सीन से शुरू  होकर समाज में कितना डरावना शब्द चित्र बनाती हैं, यह भी लेखक की सूक्ष्मता के कारण पकड़ पानें में सफलता मिलती नजर आती है। दो बुजुर्गो की बातचीत के अंष के द्वारा बतलानें का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार नेता अपनें स्वार्थो को सधवानें के लिये दर- दर के भिखारी बनते है, और फिर पाॅच वर्षो तक षक्ल तक नही दिखातें हैं।

दहेज की समस्या से लड़ने के लिये हमारे अध्यापक, प्राध्यापक जब तक सहयोग नही प्रदान करेंगे, अपनें को आदर्ष रूप में प्रस्तुत करके जब तक छात्रों का हित की राह नही बताॅयेगे, तब तक इसी प्रकार यह कृत्य होते रहेंगे , इस बात का भी संकेत मिलता है।

उपन्यास का आरम्भ एक गरीब व्यक्ति दीनानाथ की चिठ्ठी से आंरभ होता है जिसमें उसके द्वारा दहेज के रूप् का बखान किया गया है जिससे आंरभ से ही संकेत मिलनें लगता है कि दहेज की दारूण कथा ही इस उपन्यास का केन्द्र विन्दु हो सकता है।

दीनानाथ जो कि नायिका के पिता हैं जिनके परिवार में उनकी माॅ फुलिया, संध्या की सौतेली माता षषि और इसके अतिरिक्त चार बहनें - प्रेमा, किषोरी, रजनी और निर्मला हैं साथ ही षषि का एक पुत्र रत्नेष भी है। ष्यामा, संध्या की सगी माॅ का नाम था जो कि कई वर्ष पूर्व ही परलोक वासिनी हो चुकी है।

प्रेमा और किषोरी का विवाह दो वर्ष पूर्व ही सोनांचल ग्राम के हरीराम और सुक्खी के पुत्रों सालिक और षम्भू से हो चुका है। सोनांचल ग्राम के सरपंच की पत्नी लता जब उनकें यहाॅ घूमनें जाती है तभी से उसके मन में भी विचार आ जाता है कि आगामी चुनाव में अपनें पति को भी (सरपंची में) खड़ा करना है।

नारी मन के भावों को पकड़ने में लेखक नें अपेक्षित सफलता हासिल की है जब तक प्रेमा गरीब घर की वहू थी तो मानों संध्या के प्रति प्रेम का सोता उसके हृदय में फटा पडता था पर जैसे ही पद, गरिमा प्रसिध्दि और दौलत उसके दरवाजे पर हाॅथ बाॅधकर खड़ी हो जाती है वह अपनी उसी बहन को नकार सा देती है, वाह री औरत!

ग्रामीण अंचलो में किस प्रकार तकरार और प्यार का दौर चलता है यह भी इस उपन्यास की आत्मा है। बहू का सास को वेष्या कहना, सास को आंखे तरेरकर देखना क्रोधी मान सिकता का और चारों - पाॅचो बहनों का एकत्र होकर दादी को छेड़ना हास - परिहास और पुराने तथा नये जमाने के अन्तर को समझानें का अच्छा तरीका लेखक नें खोज निकाला है।

उसके साथ ही लेखक का अपना दृष्टिकोण, विचारधारा, भावों का उतार - चढ़ाव, अपनें आप को तौलते हुये आज के समाज की नजर में दर्षाना भी एक अच्छी निषानी है।

ग्रामीणांे के लगातार पतन ही ओर बढ़ते जाना और अपनीं उलूल - जूलूल आदतों तम्बाकू खाना षराब पीना, हुक्का पीना जैसी बातों को ये मान लेना कि लगातार षौक करते - करते ये आदते पड़ गई, और अब तो जनाजे का सांथ ही जायेगी, एक सटीक व्यग्य है।

ओझा, तात्रिक और ऐसे ही अन्य लोंगो का पेट गाॅव वालो के अंधविष्वास और गलत विचार धाराओं के कारण भरता है और पेट भरनें पर मन पाप की ओर किस प्रकार अग्रसर होता है यह भी (षषि और धूर्त पाखंडी ओझा के प्रसंगा द्वारा) वतलानें का सटीक प्रयास किया गया है।

हॅसी षोक, दुःख खुषी,विवाद विछोह सभी परिस्थितियो में गाॅव की स्त्रियाॅ किस प्रकार मिलकर परिस्थितियों को काट देती हैं इसका वर्णन भी इस उपन्यास में मिलता है, सोहर गीत, गजल आदि सब प्रस्तुत कृति में मिलतें है।

सुनैना, संध्या की सहेली और एकमात्र प्राणों की प्राण गगन मिश्रा और वसुधरा मिश्रा की एक मात्र संतान जो कि स्वर्गाचल ग्राम में अभी तीन महीनें पहले ही आये हैं और इस बीच विचारो के मिलनें के कारण वह उसकी पक्की सहेली बन गई है।

रजनी और निर्मला दोनों का विवाह ष्यामदास और जुमनी के पुत्रों रामदास और कृष्णदास से हुआ है। संध्या का विवाह भद्रांचल ग्राम में सत्यप्रकाष और मीना के पुत्र कमलकुमार के साथ तय हो जाता है।

बारात द्वार पर लगनें पर क्या - क्या किया असभ्यताओं का प्रदर्षन अब होेंने लगता है इसका भी खुला वर्णन लेखक द्वारा किया गया है बतासे, चावल और पुष्प पूजा की वर्षा अब द्वारपूजा पर मंडप में न होकर वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष की लडकियों पर किया जाता है। यह सब षहरी सभ्यता का आवरण किस प्रकार गावों की स्वच्छ परम्परा पर कालिमा ओढ़ा रहा है इसका वर्णन भी लेखक द्वारा सटीकता पूर्वक किया गया है।

उसके बाद निर्मला को फाॅसी पर झुलाकर मार डालनें का दारूणिक दृष्य हमारे सामने आता है, जिसमें दहेज के कारण हुई हत्या को साधारण हत्या का स्वरूप दे दिया जाता है। लेखक ने यह बतानें का प्रयास भी किया है कि हमारी न्याय व्यवस्था, पुलिस प्रषासन यदि चैकस,चैकन्ना हो जायें तो इस प्रकार के कुत्य कम हो सकते हैं और यदि होते हैं तो उनके सांथ नरमी का नही गरमी का व्यवहार होना चाहिये।

संजीव कुमार शर्मा प्राध्यापक

प्राध्यापक

महाविद्यालय मझौली सीधी (म0प्र0)

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