अब तो भरोसे को, भरोसे से सजोऊं कैसे ?
जबकि उनको यकीन है, और है भी नहीं !
अब तो नज़रों को, नज़रों से मिलाऊं कैसे ?
जबकि वे नज़रों को मिलाते हैं, मिलाते भी नहीं !
अब तो भरोसे को, भरोसे में सजोऊं कैसे ? ।।
अब तो मिलकर भी मुलाकात को समझूं कैसे ?
जबकि वे मिलकर भी, मुलाकात समझते ही नहीं !
अब तो ख़याल भी रखते हैं, और रखते भी नहीं !
और फिर कहते हैं, ख़यालात में रखा क्या है !!
अब तो भरोसे को,भरोसे में सजोऊं कैसे ? ।।
अब तो अरमानों पर, हालातों का भारीपन है,
और वे कहते हैं, अच्छे दिखाई देते हो,,
अब तो भरोसे को, भरोसे में सजोऊं कैसे ?
जबकि उनको यकीन है, और है भी नहीं !!
और है भी नहीं ......।।।।
स्व-रचित-
विजय कनौजिया
9818884701