?
अगर
तुम लिखोगे
हम देख लेंगे,
ये समाज हमारी ही है,
ऐसी आवाजें आती हैं
मैंने लिखा
साहित्य की किलिष्ट भाषा में
उनको
समझ नहीं आया
सफलता हाथ लगी ।
उनका समूह है,
पूरे देश में सक्रिय है,
वे लोकप्रिय हैं ।
अखबारों में छाये रहते हैं
समाज में प्रतिष्ठा
निरंक है।
खोटे सिक्के के भांति
चल भी जाते है !
दरकार है,
साहसिक पत्रकारारिता
साम दाम दण्ड भेद से
आवाज को
"बुलंद "करने की ।
आम को इमली
इमली आम
अब
नहीं कहना होगा!
अरे
सियार को शेर बना दिया!
कैसे चलेगा काम ।
"टूट गये पर झूके नहीं"
साथियों क्यों
भूल गये
मूल सिध्दांत ।
अनिलकुमार सोनी