* * ग़ज़ल * *
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वक़्त की भट्टी मेँ हम
तपते
गये ।
जिस तरह ढाले गये ढलते
गये ।।
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हम प्रभंजन के निशाने पर रहे ,
दीप थे बुझ कर जले जलते
गये ।।
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उम्र गुज़री एक ही आवास
मेँ ,
एक दूजे को मगर छलते
गये ।।
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हर क़दम पर प्रेम ने धोका दिया ,
आस्तीँ मेँ साँप कुछ पलते
गये ।।
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हम खड़े तन्हा रहे हर मोड़
पर ,
लोग अपना रास्ता चलते गये ।।
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तुम दिलोँ की धड़कनेँ बनकर जिए ,
हम ज़माने को मगर खलते गये ।।
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चैन से जीना बहुत मुश्किल हुआ ,
मूँग छाती पर सभी दलते
गये ।।
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वक़्त की धारा मेँ बहना भूल कर ,
ज़िन्दगी भर हाथ हम मलते गये ।।
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भाप से पानी बने अब बर्फ
हैँ ,
'अश्क' किस किस रूप मेँ ढलते गये ।।
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'अश्क' कायमी