* * दोहे * *
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पैदा होते ही लगे ,
दुनिया भर के रोग ।
आजीवन भोगा किए ,
कृत कर्मो का भोग ।।
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लगे उठाने उँगलियाँ ,
बस्ती के सौ लोग ।
अक्षर अब जंगल चलो ,
अच्छा बना सुयोग ।।
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जब से सब कुछ छोड़ कर , दुनिया मेँ अनिकेत ।
तब से निज विस्तार के ,
अन्तस मेँ संकेत ।।
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जब तक मन संतप्त है ,
तिल भर आशा शेष ।
जीवन मेँ मिलना नहीँ ,
निज चेतन अविशेष ।।
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'अश्क' कायमी