नारीमुक्ति चेतना का बीजरोपण द्वितीय युद्ध के पश्चात ही उभर कर सामने आया। भारतीय नारी अपने धार्मिक प्रभावित सामाजिक परंपराओं से अधिक भावात्मक तौर पर संबंद्ध है। जिसके कारण अनेक दक़ियानूसी बंधनों में जकड़ी ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ की चेतना के बारे तिनकाभर सोचने तक में असमर्थ रही। नारी के इर्दगिर्द माँ,बेटी, पत्नी, बहू व अन्य रिश्तों के दवाब में उसकी स्वतंत्रता परिधि तय कर दी गई। नारी का अपना अस्तित्व व अपनी सत्ता के प्रति सचेत होने का प्रश्न ही नहीं उठता था। नारी की चेतना जागृत होने व समाज की व्यवस्था में परिवर्तन होने का मूल्याँकन ‘बेचैनी’ समझा गया।”
सामाजिक समीकरण में नारी के जीवनकाल स्थिति पाश्चात्य व भारतीय सभ्यता में लगभग समान ही दयनीय थी। दोनों ही सभ्यताओं में राजा-महाराजाओं के परिवेश को छोड़कर साधारण वर्ग के समाज नारी को पुरुषों के समान सम्मान प्राप्त था न ही कोई अधिकार। प्राकृतिक गुण के कारण नारी को दुर्बल प्राणी मानना पुरुषों की दृष्टि में विशेष रुप में प्रधान तत्व था। युगों से आंतरिक संघर्ष से जूझते-जूझते नारी को अपनी पहचान आदि मनोविकारों का आभास होने लगा। जबकि उस समय समस्त रीति-रिवाज, नियम-क़ानून व धार्मिक बंधन मुख्यतया पुरुषों को सुविधा देने के लिए ही प्रतिपादित कर नारी पर लादे गए थे यानि कि ‘ नारी का अस्तित्व पुरुष मात्र के लिए है।’ नारी अपने इस आदिम परिवेश और परंपराओं को दोहराते-दोहराते अपनी भावनाओं का हनन अनुभव करने लगीं। परिस्थितजन्य पुरुषों व नारी की भावनाओं में जो अंतर था, उसका श्रेय बचपन से ही नारी का लालन-पालन पुरुषों से कमजोर, दीन समझकर ही किया जाता था। पुरुषों के व्यक्तित्व को ऐसे शक्तिशाली रुप में दर्शाया जाता कि वही उनका रक्षक और ईश्वर है।
क्रमशः...