आँखें खुली हुई है तो मंज़र भी आएगा
काँधों पे तेरे सर है तो पत्थर भी आएगा
हर शाम एक मसअला घर भर के वास्ते
बच्चा बज़िद है चाँद को छू कर भी आएगा
इक दिन सुनूँगा अपनी समाअत पे आहटें
चुपके से मेरे दिल में कोई डर भी आएगा
तहरीर कर रहा है अभी हाल-ए-तिश्नगाँ
फिर इस के बाद वो सर-ए-मिंबर भी आएगा
हाथों में मेरे परचम-ए-आग़ाज़-ए-कार-ए-ख़ैर
मेरी हथेलियों पे मेरा सर भी आएगा
मैं कब से मुंतज़िर हूँ सर-ए-रहगुज़ार-ए-शब
जैसे के कोई नूर का पैकर भी आएगा
-अमीर क़ज़लबाश