दामन पे लहू हाथ में ख़ंजर न मिलेगा
मिल जाएगा फिर भी वो सितम-गर न मिलेगा
पत्थर लिए हाथों में जिसे ढूँढ रहा है
वो तुझ को तेरी ज़ात से बाहर न मिलेगा
आँखों में बसा लो ये उभरता हुआ सूरज
दिन ढलने लगेगा तो ये मंज़र न मिलेगा
मैं अपने ही घर में हूँ मगर सोच रहा हूँ
क्या मुझ को मेरे घर में मेरा घर न मिलेगा
गुज़रो किसी बस्ती से ज़रा भेस बदल कर
नक़्शे में तुम्हें शहर-ए-सितम-गर न मिलेगा
-अमीर क़ज़लबाश