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हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझको ख़ुदा देता था

15 फरवरी 2016

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हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझ को ख़ुदा देता था

नेकियाँ करके मैं दरिया में बहा देता था


था उसी भीड़ में वो मेरा शनासा था बहुत

जो मुझे मुझसे बिछड़ने की दुआ देता था


उसकी नज़रों में था जलता हुआ मंज़र कैसा

ख़ुद जलाई हुई शम्मों को बुझा देता था


आग में लिपटा हुआ हद्द-ए-नज़र तक साहिल

हौसला डूबने वालों का बढ़ा देता था


याद रहता था निगाहों को हर इक ख़्वाब मगर

ज़ेहन हर ख़्वाब की ताबीर भुला देता था


क्यूँ परिंदों ने दरख़्तों पे बसेरा न किया

कौन गुज़रे हुए मौसम का पता देता था

-अमीर क़ज़लबाश

मदन पाण्डेय 'शिखर'

मदन पाण्डेय 'शिखर'

जिंदा इंसान की यहाँ बड़ी बे-कदरी होती है, फिर कफ़न और कब्र की ज़द्दोजहत क्यों...

15 फरवरी 2016

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रचनाएँ
ameerqazalbaash
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इस आयाम के अंतर्गत आप शायर और गीतकार 'अमीर क़ज़लबाश' की रचनाएँ पढ़ सकते हैं I
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आँखें खुली हुई है तो मंज़र भी आएगा

15 फरवरी 2016
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आँखें खुली हुई है तो मंज़र भी आएगाकाँधों पे तेरे सर है तो पत्थर भी आएगाहर शाम एक मसअला घर भर के वास्तेबच्चा बज़िद है चाँद को छू कर भी आएगाइक दिन सुनूँगा अपनी समाअत पे आहटेंचुपके से मेरे दिल में कोई डर भी आएगातहरीर कर रहा है अभी हाल-ए-तिश्नगाँफिर इस के बाद वो सर-ए-मिंबर भी आएगाहाथों में मेरे परचम-ए-आ

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अपने हम-राह ख़ुद चला करना

15 फरवरी 2016
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अपने हम-राह ख़ुद चला करनाकौन आएगा मत रुका करनाख़ुद को पहचानने की कोशिश मेंदेर तक आईना तका करनारुख़ अगर बस्तियों की जानिब हैहर तरफ़ देख कर चला करनावो पयम्बर था भूल जाता थासिर्फ़ अपने लिए दुआ करनायार क्या ज़िंदगी है सूरज कीसुब्ह से शाम तक जला करनाकुछ तो अपनी ख़बर मिले मुझ कोमेरे बारे में कुछ कहा करनाम

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बंद आँखों से वो मंज़र देखूँ

15 फरवरी 2016
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बंद आँखों से वो मंज़र देखूँरंग-ए-सहरा को समंदर देखूँक्या गुज़रती है मेरे बाद उस परआज मैं उस से बिछड़ कर देखूँशहर का शहर हुआ पत्थर कामैं ने चाहा था के मुड़ कर देखूँख़ौफ़ तंहाई घुटन सन्नाटाक्या नहीं मुझ में जो बाहर देखूँहै हर इक शख़्स का दिल पत्थर कामैं जिधर जाऊँ ये पत्थर देखूँकुछ तो अंदाज़-ए-तूफ़ाँ ह

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दामन पे लहू हाथ में ख़ंजर न मिलेगा

15 फरवरी 2016
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दामन पे लहू हाथ में ख़ंजर न मिलेगामिल जाएगा फिर भी वो सितम-गर न मिलेगापत्थर लिए हाथों में जिसे ढूँढ रहा हैवो तुझ को तेरी ज़ात से बाहर न मिलेगाआँखों में बसा लो ये उभरता हुआ सूरजदिन ढलने लगेगा तो ये मंज़र न मिलेगामैं अपने ही घर में हूँ मगर सोच रहा हूँक्या मुझ को मेरे घर में मेरा घर न मिलेगागुज़रो किसी

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हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझको ख़ुदा देता था

15 फरवरी 2016
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हाँ ये तौफ़ीक़ कभी मुझ को ख़ुदा देता थानेकियाँ करके मैं दरिया में बहा देता थाथा उसी भीड़ में वो मेरा शनासा था बहुतजो मुझे मुझसे बिछड़ने की दुआ देता थाउसकी नज़रों में था जलता हुआ मंज़र कैसाख़ुद जलाई हुई शम्मों को बुझा देता थाआग में लिपटा हुआ हद्द-ए-नज़र तक साहिलहौसला डूबने वालों का बढ़ा देता थायाद रह

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हर रह-गुज़र में कहकशाँ छोड़ जाऊँगा

15 फरवरी 2016
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हर रह-गुज़र में कहकशाँ छोड़ जाऊँगा,ज़िंदा हूँ ज़िंदगी के निशाँ छोड़ जाऊँगा Iमैं भी तो आज़माऊँगा उसके ख़ुलूस को,उस के लबों पे अपनी फ़ुग़ाँ छोड़ जाऊँगा Iमेरी तरह उसे भी कोई जुस्तुजू रहे,अज़-राह-ए-एहतियात गुमाँ छोड़ जाऊँगा Iमेरा भी और कोई नहीं है तेरे सिवा,ऐ शाम-ए-ग़म तुझे मैं कहाँ छोड़ जाऊँगा Iरौशन र

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इक परिंदा अभी उड़ान में है

15 फरवरी 2016
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इक परिंदा अभी उड़ान में हैतीर हर शख़्स की कमान में हैजिस को देखो वही है चुप-चुप साजैसे हर शख़्स इम्तिहान में हैखो चुके हम यक़ीन जैसी शयतू अभी तक किसी गुमान में हैज़िंदगी संग-दिल सही लेकिनआईना भी इसी चटान में हैसर-बुलंदी नसीब हो कैसेसर-निगूँ है के साए-बान में हैख़ौफ़ ही ख़ौफ़ जागते सोतेकोई आसेब इस मक

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मेरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा

15 मार्च 2016
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मेरे जुनूँ का नतीजा ज़रूर निकलेगा,इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा Iगिरा दिया है तो साहिल पे इंतिज़ार न कर,अगर वो डूब गया है तो दूर निकलेगा Iउसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़,हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा Iयक़ीं न आए तो इक बात पूछ कर देखो,जो हँस रहा है वो ज़ख़्मों से चूर निकलेगा Iउस आस्तीन से अश्

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नज़र में हर दुश्वारी रख

15 मार्च 2016
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नज़र में हर दुश्वारी रखख़्वाबों में बेदारी रखदुनिया से झुक कर मत मिलरिश्तों में हम-वारी रखसोच समझ कर बातें करलफ़्ज़ों में तह-दारी रखफ़ुटपाथों पर चैन से सोघर में शब-बेदारी रखतू भी सब जैसा बन जाबीच में दुनिया-दारी रखएक ख़बर है तेरे लिएदिल पर पत्थर भारी रखख़ाली हाथ निकल घर सेज़ाद-ए-सफ़र हुश्यारी रखशेर

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वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे

15 मार्च 2016
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वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझेमैं आख़िरी चराग़ था जलना पड़ा मुझेमहसूस कर रहा था उसे अपने आस पासअपना ख़याल ख़ुद ही बदलना पड़ा मुझेसूरज ने छुपते छुपते उजागर किया तो थालेकिन तमाम रात पिघलना पड़ा मुझेमौज़ू-ए-गुफ़्तुगू थी मेरी ख़ामुशी कहींजो ज़हर पी चुका था उगलना पड़ा मुझेकुछ दूर तक तो जैसे कोई मेरे स

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