अंधेरी रात की नीरवता को चीरती हुई ट्रेन अपनी पटरियों पर धड़ धड़ाती हुई चली जा रही थी।
ट्रेन का एक सुनसान कंपार्टमेंट...जिसमें सिर्फ़ एक हल्की सी लाइट ऑन थी या शायद वो ही एक लाइट सही हालत में थी बाक़ी लाइटें या तो बंद थीं या ख़राब थीं।
तो उस कंपार्टमेंट के ऐसे रहस्यमय माहौल में सिर्फ़ दो लोग सफ़र कर रहे थे जो आमने सामने की सीटों पर बैठे थे। दायीं तरफ़ की सीट पर जो आदमी बैठा था वह अपने इर्द गिर्द के माहौल से बेख़बर एक किताब में खोया था। उसने कोट पैंट पहना था। बराबर में ही उसका ब्रीफकेस रखा था वह लगभग चालीस वर्षीय व्यक्ति जिस तरह किताब में लीन था उससे प्रतीत होता था कि वह किताब के ऐसे रोचक मोड़ पर पहुंच चुका था कि उसे अपने आस पास से कोई मतलब नहीं था। बायीं तरफ़ वाली सीट पर जो अधेड़ व्यक्ति विराजमान था उसका रंग सांवला था वह बहुत देर से चुपचाप बैठा ट्रेन की खिड़की से बाहर अंधेरे में देख रहा था। ट्रेन अंधेरे को चीरती हुई अभी भी शोर मचाती हुई भागी जा रही थी। अब बायीं तरफ़ की सीट पर बैठे व्यक्ति का धीरज जवाब देता जा रहा था क्यूंकि आधी रात में इस अकेले कंपार्टमेंट में उसका एक ही हमसफ़र था लेकिन वो भी किताब में मग्न।
तो बायीं तरफ़ बैठे व्यक्ति ने बेचैनी से अपने सामने बैठे व्यक्ति की तरफ़ देखा उसका चेहरा किताब के पीछे छुपा था क्यूंकि वह किताब को ऊपर उठा कर अपने चेहरे के सामने रख कर पढ़ रहा था। तभी बातचीत करने के लिये बेचैन बायीं तरफ़ बैठे व्यक्ति की नज़र किताब के टाइटल पर गयी टाइटल था " भूतों का रहस्य "
टाइटल देख कर वो चौंक उठा अब उस आदमी से बात करने की उसकी इच्छा और तीव्र हो चली थी। अंततः उसने हल्के से खांस कर कहा " माफ़ कीजियेगा एक बात पूछूं ?"
किताब पढ़ रहे व्यक्ति की जैसे इस आवाज़ से तंद्रा टूटी। किताब नीचे कर के उसने अपनी खरखराती आवाज़ में कहा " जी पूछिये "
प्रश्न करने वाले व्यक्ति ने मुस्कराते हुए पूछा " क्या आप वाक़ई भूतों में विश्वास रखते हैं ? "
किताब पढ़ने वाला व्यक्ति गंभीर लहजे में बोला " जी बिल्कुल रखता हूँ।"
प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति के होंटों पर ये जवाब सुन कर मुसकराहट तैर गयी। स्पष्ट था कि ये मुस्कान व्यंग्यात्मक थी। किताब वाला व्यक्ति उस मुस्कान को देख कर और गंभीर हो गया। उसका खरखराता हुआ लहजा अब कठोर भी हो गया उसने पूछा " क्यूँ ? क्या आप भूतों के अस्तित्व को नहीं मानते ?"
उत्तर मिला " बिल्कुल नहीं "
ये उत्तर देकर उसने एक पल के लिये खिड़की से बाहर दूर दूर तक फैले अंधकार पर नज़र मारी और अगले पल फिर अपने सामने वाली सीट की तरफ़ देखा और ये देख कर वो भौंचक्का रह गया कि सामने वाली सीट पर कोई नहीं था ना कोई ब्रीफकेस और ना कोई आदमी।
अब उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन से दौड़ने लगी थी वो अवाक भयभीत भौंचक्का और किंकर्तव्यविमूढ़ सा मूर्ति बना बैठा था। इस बला की ठंड में पसीने की बूंदें माथे से लुढ़क कर चेहरे पर फिसल रही थीं।
ट्रेन धड़धड़ाती हुई एक अंधेरी सुरंग में पटरियों पर भागी जा रही थी।