अगर मर जाऊँ तो रोने मत आना...
क्या आपने अपनी मृत्योपरांत के लिए कोई वसीयतनामा कर लिया है? यदि हाँ, तो उसे बदलने के लिए, और यदि नहीं तो एक लिख डालने के लिए आपके सामने प्रस्तुत है एक उत्तम विचार.
उज्जैन के श्री महावीर प्रसाद लोहिया ने मृत्योपरांत का एक वसीयतनामा लिखा है, जो कई मामलों में अनुकरणीय है. उन्होंने अपने मृत देह का दान चिकित्सा महाविद्यालय को तो सौंपा ही है, कुरीतियों को भी सिरे से नकारा है.
कुछ प्रेरणा मुझे भी मिली है. और मैं अपना यह वसीयत नामा इंटरनेट पर, अपने ब्लॉग पर टांगता हूँ. इससे महफ़ूज जगह और क्या हो सकती है भला?
मृत्यु पर कोई भी क्रियाकर्म, पिंडदान, ब्राह्मण-भोज, गरूड़पुराण पाठ, बारहवां, तेरहवां, पगड़ी आदि रूढ़िवादी रीतिरिवाज कतई नहीं किया जाए. मेरे मृत देह को चिकित्सा महाविद्यालय को दान में दे दिया जाए.
पत्नी को विधवा नहीं माना जाए. (मैं सिर्फ शरीर छोड़ूंगा, पत्नी को नहीं. मेरी आत्मा पत्नी के इर्द-गिर्द सदैव भटकेगी,)
बच्चों के सिर नहीं मुंडवाए जाएं. (इसी बहाने डैंड्रफ़ से छुटकारा पाना हो तो बात अलग है,)
घर में अथवा कहीं भी बैठक नहीं की जाए. मातमपुर्सी करने किसी को भी घर नहीं आना है. (वैसे भी, लोग मातमपुर्सी करने जाते हैं तो बात अंततः लालू, क्रिकेट और बुश-ओसामा पर ही आ टिकती है,)
कम से कम लोगों को सूचना दी जाए. (वैसे भी, जितनों को पता चलेगा, बोलेंगे – अच्छा हुआ साला चल बसा धरती पर भार था,)
किसी तरह की शोक-सभा आयोजित न की जाए. (जिसने परसाईं लिखित शोक-सभा पर व्यंग्य पढ़ लिया हो, वो जिंदा या मुर्दा, कभी भी अपनी शोकसभा आयोजित नहीं करवाना चाहेगा,)
रतलाम दिनांक 26-11-07
हस्ताक्षर: रविशंकर श्रीवास्तव गवाह: रेखा श्रीवास्तव
(टीप- कॉस्टक में लिखा पाठ टिप्पणी स्वरूप है, जो मेरे मूल वसीयत का भाग नहीं है.)