एक "अनुपम" झंडावरदार का यूं जुदा होना.
अनुपम मिश्र जी का बाइस दिसम्बर को हम सबसे विदा होने का पर्याय यह था कि पर्यावरण जागरुकता की जीवंत पाठशाला का हम सबसे विदा ले लेना, जल संरक्षण और प्रकृति के नजदीक समाज को ले जाने का जो दायित्व उन्होने इंजीनियर की नौकरी छॊडने के बाद निभाया वो अतुलनीय था.क्या नहीं थे वो,एक संपादक,एक साहित्यकार,एक पर्यावरणविद्द,एक गांधीवादी समाज सुधारक,और भी बहुत कुछ जो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है.पंडित भवानी प्रसाद मिश्र जी के वो पुत्र जिसने
लेख न के जरिये पर्यावरण की विशंगतियों को दूर करने का जिम्मा अपने कंधे में बिना यह सोचे उठा लिया कि कोई उनके साथ चलेगा भी या नही.उनकी लिखी एक
कविता का जिक्र यहां पे करना इस लिये भी मौजूं है क्योंकि इसमें उनकी विचारधारा को बेहतरीन ढंग से देखा जा सकता है. - सैकडों/हजारों तालाब/अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए/इसके पीछे एक इकाई थी/बनाने वालों की/ तो दहाई थी/बनाने वालों की/यह इकाई और दहाई मिलकर/सैकडा हजार बनती थी/ पिछले दो सौ वर्षों में /नए किस्म की /थोडी सी पढाई पढ गये/समाज ने इस इकाई दहाई सैकडा हजार को/शून्य ही बना दिया है.एक अखबार में कभी मैने पढा कि एक कार्यक्रम में वो कहें कि चाहे बात भोपाल की हो या राजस्थान के उदय पुर की हमने बहुत से नये स्रोत तलाश लिये हैं किंतु आज भी बुनियादी जरूरत पूर्वजों की विरासत से ही पूरी होती है।
जबलपुर की एक सेंट्र्ल लाइब्रेरी में जब मैने उनकी तीन किताबों को पलटाकर देखा जिसमें हमारा पर्यावरण,आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदे.तो मन गदगद हो गया.लेखक ने किस तरह सरल शब्दों में पर्यावरण के जल संसाधनों के बहाने तालाबों और पौराणिक जल स्रोतों को बचाने का संदेश दे दिया.आज भी खरे हैं तालाब की तो लाखों प्रतियां कई लोगों के पास बिक चुकी थी.और कई संस्करण प्रकाशित हो चुके थे.आखिरकार मैने यह पुस्तक भोपाल के एक पर्यावण संगोष्ठी में क्रय करके पढा. वो गांधी मार्ग के संपादक भी थे.एक पर्यावरणशास्त्री किस तरह साहित्य का संपादन कर सकता है वह आप उनसे देख सकते हैं.शायद पंडित भवानी प्रसाद मिश्र जी का सानिध्य वर्धा में उनकों इस काम के लिये निपुण बना चुका था.सरकारों ने जोकाम कई दशक बाद में किये वो काम अनुपम जी ने दशकों पहले अपने घर से प्रारंभ कर चुके थे.सन उन्नीस सौ तिहत्तर में जब उन्होने होसंगाबाद में मट्टी बचाओ आंदोलन तवा बांध के कारण हो रहे नुकसान पर आधारित था. वहीं दूसरी ओर उन्होने चिपको आंदोलन के समय पर अपनी पुस्तक में उसका विवरण लिखा.राजस्थान में तरुण भारत संघ के साथ पानी बचाओं और स्रोत तलाशों अभियान के हिस्से बने और राजस्थान की रजत बूंदों की रचना हुई.डाकू मोहर सिंह और माधो सिंह का समर्पण वाकया आपको चंबल का याद तो कराता ही होगा.उस समय बिनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण का नाम सभी के सामने आया था किंतु इसके पीछे भी अनुपम जी की विवेकशीलता थी.एक गांधीवादी होने के बावजूद वो जनसंघी संगढन का समाज सुधार में साथ दिया.था जो आज की
राजनीति के लिये अनुपम उदाहरण शाबित होता है.इंदौर के निकट उपरेखाल गांव में उन्होने सौर उर्जा और पवन चक्की के अनुपम उपयोगों को ग्रामवासियों को समझाया और देशज शब्दावली में सोलर पैनल को धमतप्पू का नाम देकर गांववासियों के मन को तीव्रता से जागृत किया.उन्होने मध्यप्रदेश को कभी छोडा नहीं नहीं.उन्होने लेखन के संस्कार जो भवानी प्रसाद मिश्र जी से मिले उसे बखूबी पर्यावरण और जल संरक्षण में अपने अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया और सफलता प्राप्त की.
उनके जीवन से सभी को एक शिक्षा मिलती है कि हर सृजन का अंत होता ही है.वह अंतहीन नहीं होता.परन्तु उसकी सार्वकालिक होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस सॄजन का उद्देश्य क्या है और वह कितना-कैसे-किन लोगों के द्वारा पूरा होता है,सृजन का मकसद क्या है और वह कैसे पूरा करना है यह महत्वपूर्ण है.दोस्तों हम अगर अपने काम को सॄजन मान बैठे हैं तो उसे सर्वकालिक बनाने के लिये हम तनाव लेते हैं गुस्सा होते हैं.और उसे विसर्जन करने से कतराते हैं.किंतु अच्छा सृजन तभी सार्थक है जब उसे विसर्जित करने से पहले उसका उद्देश्य पूर्ण हो जाये.और विसर्जन के बाद सृजनकर्ता नये सृजन की ओर बिना किसी दुख के बढे.अनुपम जी का सृजन कुछ ऐसा ही था.मध्यप्रदेश में उन्होने जितने काम किये वह यादगार और प्रेरणादायक है.अब हम सबको चाहिये कि जल संरक्षण और पर्यावरण को बचाने केलिये आंगे आये.और नये स्रोत खोजने के साथ साथ पुराने स्रोतों को समृद्ध करें ताकि अनुपम जी के जीवन का संदेश लोगों तक पहुंचे.मै अगर जीवनविञान और पर्यावरण वि
ज्ञान में सीनियर क्लासेस के बच्चों को इन सब उदाहरणों के माधय्म संरक्षण का संदेश पहुंचाता हूं तो शायद यह प्रथा जीवित होगी अगलीपीढी तक उसी रूप में पहुंचेगी.जिस रूप में हमारे पूर्वजों ने हमें सौंपी है.एक अनुपम झंडावरदार तो चला गया परन्तु उसकी सेना आज भी अपने अनुपम मिशन में लगकर उनके सृजन को अगले पडाव में पहुंचा रही है।यही शायद उन्हें सच्ची श्रंद्धांजलि होगी.
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७