महिलाओं के विरोध में बेबुनियाद कट्टरता.
इस समय नागालैंड में जिस द्वंद की लडाई चल रह रही है वह समतामूलक समाज के लिये एक प्रश्न चिन्ह है.जनजातीय संगठनों के विरोध प्रदर्शनों तोडफोड और आगजनी इस बात का गवाह है.इस भयावह स्थिति का पैदा होना राज्य की शांति व्यवस्था के लिये किसी भी मायने में लाभ प्रद साबित नहीं होगा.जन जातीय संघर्ष और पुलिस प्रशासन के बीच खींच तान कर्फ्यू की स्थिति निर्मित कर रहा है. आरक्षण को लेकर अन्य राज्यों में जातियों का तनाव और टकराव देश में पहले भी हुआ है किंतु पूर्वोत्तर राज्यों में इस प्रकार की स्थिति अन्य घटनाओं को हवा देने का कार्य करती है. जनजातियों का नगर निकायों में महिलाओं का तैतिस प्रतिशत आरक्षण और उग्र विरोध वहां की
राजनीति को अस्थिर बना दिया है. राज्य में महिलाओं के नौकरी करने में अगर कोई रोकटोंक नहीं है तो फिर राजनीति में ही सिर्फ इस आरक्षण का विरोध क्यों किया जा रहा है.अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हो सका कि यह विरोध आरक्षण का प्रतिशत बढाने का है या फिर महिलाओं की राजनीति में दखल के बढने की वजह से है.जब समाज पुरुष और स्त्री के बराबरी के सामनजस्य से चल रहा है तो फिर कार्यपालिका में बराबरी से इतना परहेज क्यों भाई.क्या जनजातियों के राजनैतिक ठेकेदारों को अपने गुरुडम के नष्ट होने की आशंका खाये जा रही है.
जन जातियों का यह कहना कि इस तरह का आरक्षण उनकी पारंपरिक और सभ्यता व संस्कृति के विरोध में है.आज के के समय में इस तरह की विचार धारा पुरुषप्रधान समाजिक स्थिति को बढावा देने की तरह ही है.उनके रवैये के चलते आज तक स्थानीय निकायों का चुनाव नहीं हो पाया.इस तरह की जिद समानता के अधिकार का हनन ही तो है. वो जिस अनुच्छेद ३७१ ए का हवाला देते है वह पूर्णतः आधारविहीन है.संविधान का कोई भी अनुच्छेद पुरुषसत्तात्मक समाज के द्वारा महिलाओं को पिछलग्गू बनाने की अनुमति नहीं देता है.आखिर कार कब तक लोकाचार और परंपराओं की दुहाई देकर हम स्त्री पुरुष समानता का मजाक उडायेंगें. जब पिछले साल सरकार विधान सभा में २०१२ में प्रस्ताव पारित कर जिस प्रकार आरक्षण का विरोध किया और वापिस लिया उसके बाद भी समाजिक विरोध समझ के पपरे है.इसके चलते सरकार को केंद्र से मिलने वाले आवंटन से वंचित होना पडा.केंद्र के द्वारा दी जाने वाली सहायता भी कहीं ना कहीं प्रभावित होती है.लोकतंत्र की नीतियों के विरोध में इस तरह के द्वंद अर्थहीन ही हैं. ऐसे राजनैतिक ठेकेदारों को जरूरी हो जाता है कि राज्य की शातिव्यवस्था को बनाये रखने में मदद करें ना कि नकारात्मक बात करके समानता के अधिकारों को गिरवी रखने की पहल करें.
एक तरफ नागालैंड निवासियों में अगर पर्दा प्रथा नहीं है. स्त्रियां ग्रामविकास परिषदों में सदस्य भी हैं. तो फिर आज तक कोई भी वहां की महिला विधानसभा नहीं पहुंच सकी. हां रानो एक शैजा के रूप में सांसद का आना १९७७ के लिये अपवाद होगा. परन्तु वहां के नागरिकों का यह कहना कि २५ प्रतिशत आरक्षण से उन्हे कोई अलबत्ता नहीं है. उन्हे आपत्ति उच्च राजनीति में ३३ प्रतिशत आरक्षण से है.इसके पीछे एक षडयंत्र की बू आती है. आखिरकार इस प्रतिशतों के अंतर के लिये इतना कट्टर विरोध क्यों?इसका जवाब किसी के पास नहीं है. एक तरफ खुद को समता मूलक कहकर अपने राज्य को आंगे बढाने का सपना देखना और दूसरी तरह यह कहना कि उच्च्च राजनीति पुरुषों का काम है यह दोगला व्यवहार समझ के परे है.यह अप्रत्याशित और बेबुनियाद है.इस प्रकार से स्त्रियों का समाज से स्तर और सम्मान आत्मनिर्भरता संकीर्ण हो जाता है. सतही आधुनिकता का प्रचार करना और जनजातीय विचारधारा को राज्य की कार्य पालिका की नीति बनाना भी कहीं ना कहीं पर सही नहीं है,
एक तरफ हम महिला सशक्तीकरण और स्त्री विकास की बात करते हैं.हमारे प्रधान मंत्री जी महिलाओं को आंगे बढाने की नीति को पूरे राज्यों में पालन कर रहे हैं. तब भी इस तरह का विरोध समझ के परे है.जनजातीय बाहुल्य पूर्वोत्तर राज्यों में इस तरह का विरोध किसी भी तरह से संवाद और बैठकर शांत करना ही एक रास्ता है.वहां की सिविल सोसायटी को चाहिये कि महिलाओं के लिये देश के अन्य राज्यों की भांति संवैधानिक प्रावधान को लागू करे और पक्ष और विपक्ष को इस मुद्दे में सर्वसम्मति बनाने की पहल करना होगा.यदि वह भारत का अभिन्न अंग है तो भारत के संविधान के अनुरूप नीतियों को लागू करना ही राज्य की स्वायत्तता को कायम रखने में जरूरी है.
अनिल अयान,सतना