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अपरिचित

13 जनवरी 2024

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सूरज की लालिमा अब मद्धिम हो चली थी। वह अस्ताचल की गोद में विश्राम करने चला जा रहा था। गांव की उन कच्ची पगडंडियों पर लोग ही नहीं बल्कि पक्षी- पखेरू भी अपने -अपने बसेरे की ओर लौट रहे थे। चारों तरफ फैली दूर- तलक हरियाली अब धीरे - धीरे अंधकार के आगोश में विलीन सी होती जान पड़ती थी। 
मैली सी फटी धोती, चेहरे पर झुर्रियां और पैरों में टूटी चप्पल पहने हाट के आखिरी छोर पर पालक की चार गड्डियां लिए वह कभी ढलते सूरज को ताकती, तो कभी आशा भरी निगाहों से आने-जाने वाले लोगों को देखती। लोग बस एक निगाह देखते और आगे बढ़ जाते। वह पीछे से आवाज भी लगा देती - " लेते जाइये, बाबू जी, एकदम ताजी पालक है"। मगर कोई दोबारा मुड़ के नही देखता, बस आगे बढ़ जाता। 
अंधेरा धीरे - धीरे घना होता जा रहा था। बाजार में लोग भी इक्के- दुक्के ही रह गए थे। दुकानदार भी अपनी दुकान समेट घर लौटने की तैयारी में लग गए थे। लेकिन,  वह किस्मत की मारी अभी भी उम्मीदों का चिराग जलाए बैठी थी। काश, कुछ बिक जाए तो रात के खाने का बंदोबस्त हो जाए। 
एक बार फिर उसने चारों तरफ नजर घुमाई तो बची- खुची आशा भी दम तोड़ती नजर आयी। अब थके से हाथों से उसने एक- एक कर वो पालक की गड्डियां उठायीं और एक झोले में डालने लगी। उसे तो एक ही चिन्ता ही खाए जा रही थी कि कल की तरह आज भी  पानी पीकर ही पेट भरना होगा। लेकिन, ... लेकिन उसे क्या खिलाएगी जो चार साल की दुधमुंही बच्ची, जिसे वह घर छोड़कर आयी है। बेचारी अबला जो ठहरी, समाज में किस मुंह से किसी से कुछ मांगने जाए। यहां तो लोग बिना स्वारथ के किसी को शरीर का मैल तक न देते। अभी यही कोई  पांच साल ही हुए होंगे शायद, जब वह व्याह के आयी थी। उमर ही क्या थी अभी, यही कोई सत्ताईस- अट्ठाइस साल। शादी से पहले एकदम फूल सी दिखती थी। घर में इकलौती थी अपने मां- बाप की। पिताजी अक्सर कहा करते थे- "सुमन तो किसी परी से कम नहीं लगती"। लेकिन वक़्त की मार ने सुमन को यौवन में ही जर्जर कर दिया था। जिस सुखी जीवन के सपने उसने सँजोये थे, वह तो उसी दिन बिखर कर टूट गए थे जब उसे पता चला कि पति शराबी है। पता नही क्या देखकर घरवालों ने ऐसे आदमी के पल्ले बांध दिया। मां- बाप ने शादी के लिए यदि जल्दबाजी न कि होती, तो कम से कम पढ़ाई पूरी कर लेती तो आज यह दिन तो न देखना पड़ता। पति एक साल पहले सड़क पर एक लारी के नीचे आ गया और परलोक सिधार गया। सुमन अक्सर कहा करती थी- "ये शराब किसी दिन तुम्हारी जान लेकर ही मानेगी"। मगर पति को इसकी कोई परवाह न थी। वो सुनता ही कब था। और ये सच भी साबित हुई। लेकिन अफसोस करे तो भी क्यूं करे, किसलिए करे, कौन सा जीते जी सुख मिला उसे। जिंदा था तो पति की मार खाती थी, मर गया तो अब बेचारी किस्मत की मार खाती है। अब तो सुबह होते ही खेतों में निकल जाती है। खेतों से कुछ बीन- बान कर शाम को बाजार में बेचने आ जाया करती है। वैसे चाहें कोई कुछ खरीद भी ले, लेकिन उसकी हालत देखकर लोग अक्सर कतराते रहते थे। 

खैर, फिर अब उसने धीरे से झोला उठाया और थके कदमों से घर की ओर चल पड़ी। पता नही किस नामुराद का मुंह देखा था सुबह- सुबह,  आज तो बोहनी तक नही हुई । तरह - तरह के ख्याल उसके जेहन में आ-जा रहे थे। अंधेरा काफी हो गया था। वह तेज़ कदमों से कच्चे रास्ते पर बढ़ी चली जा रही थी। ढलान के उस तरफ ही उसका छोटा सा गांव था। गांव के बाहर उसकी टूटी- फूटी झोपड़ी दूर से ही दिखाई दे जाती थी। अब तो दो ही प्राणी घर में थे। वह और उसकी चार साल की बेटी जिसे अक्सर वह बाहर जाते समय घर पर  ही  छोड़ जाया करती थी। हां, दोपहर में बाजार आते वक्त उसे घर पर कुछ खिला- पिला जरूर देती तब बाजार को निकलती। उसके पास आज तो सिर्फ दस रुपये ही जमा -पूंजी में बचे थे जोकि तीन रोज पहले सरसों का साग बेचकर कुल सौ रुपए मिले थे। जिसमें उसने तीस रुपए उधारी चुका दी और बाकी के बीस रुपये से गुड़िया के लिए कुछ खाने को हो गया। सो, दस बचे तो आज आते समय गुड़िया के लिए बिस्किट का पैकेट ले लिया। खुद के लिए न सही लेकिन उसके लिए कुछ तो चाहिए ही। जैसे ही मां के पैरों की आहट गुड़िया के कानों में पड़ी, खुशी से दौड़ती हुई दरबाजे पर ही सुमन के पैरों से लिपट गई। उसे गोद में उठा प्यार से मुसकराते हुए सुमन अंदर झोपड़ी में चली गयी। 

मिट्टी से बने चबूतरे पर वह हाथ से दियासलाई ढूढने की कोशिश करने लगी। चूल्हे के पास रखी ढिबरी को जलाते हुए उसने गुड़िया से कहा- "कोई आया तो नही था, बेटा"। गुड़िया जो अब तक झोले में अपने नन्हे हाथों से कुछ टटोल रही थी, तुतलाते हुए बोली - " नही, मम्मी.... तोई नही आया था"। हल्की सी रोशनी से वह झोपड़ी रोशन हुई। अचानक नजर पीछे गयी तो गुड़िया झोले में से बिस्किट का पैकेट निकल मुँह से रैपर को फाड़ने में व्यस्त थी। जब रैपर न फाड़ सकी तो नन्हे कदमों से लड़खड़ा कर चलते हुए मां के पास आ गयी। मासूमियत से उसने वो बिस्किट का पैकेट मां की ओर बढ़ाते हुए चेहरे को ताकने लगी। 
सुमन ने बिस्किट का रैपर फाड़ गुड़िया को दे दिया और बाल्टी उठा बाहर नल से पानी भरने चली गई। कुछ देर बाद जब पानी भर वापस लौटी देखा कि गुड़िया रो रही है। दौड़ी - दौड़ी आयी और उसे गोद में उठा प्यार से पुचकारते हुए बोली -"क्या हुआ बेटा,। गुड़िया रोए जा रही थी। सुमन ने फिर दोहराया। गुड़िया रोते - रोते बोली- " वो तुत्ता मेला बिचकिट ले दया"। "कोई बात नही, बेटा, रोते नही, मैं और ला दूँगी" कहते हुए चुप करा एक कोने में जमीन पर पड़े बिस्तर सही करने में लग गयी।
                                          (शेष अगले भाग में...)
प्रभा मिश्रा 'नूतन'

प्रभा मिश्रा 'नूतन'

बहुत खूबसूरत लिखा है आपने 👍🙏🙏

14 जनवरी 2024

जय त्रिवेदी 'अखिल'

जय त्रिवेदी 'अखिल'

14 जनवरी 2024

धन्यवाद प्रभा जी, आपकी लेखन शैली अतुलनीय है। आपकी प्रेरणा से अपने टूटे-फूटे शब्दों के सहारे कुछ लिखने की एक छोटी सी कोशिश की है। आपका हृदय से आभार।

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