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तीर फिर तरकशों से निकलने लगे । रोशनी के लिए फिर भटकने लगे । सोच उल्टी दिखे आदमी की यहाँ - अम्न के ख्वाब देखो बिखरने लगे ।। ✍️ अरविन्द त्रिवेदी