इतिहास गवाह है कि अमानवीय तौर तरीके हमेशा संसार को विनाश के गर्त की ओर ही धकेलते हैं और मानवीय मूल्यों ने ही हमेशा संसार को रोशनी दी है। वो इंसानियत का ही तकाज़ा था जिस के चलते 23 वर्षीय विमान परिचारिका नीरजा भनोत ने वीरतापूर्ण आत्मोत्सर्ग करते हुए 1996 में अपहरित विमान पैन एम 73 में सवार कई यात्रियों और बच्चों की ज़ान बचाई। अगर इंसानियत न होती, तो जुलाई 2016 में भोपल के कृष्णा नगर का 23 वर्षीय दीपक अपनी जान गंवा कर 20 लोगों को डूबने से न बचाता। अगर इंसानियत न होती, तो कैलाश सतयार्थी व मलाला युसुफजई नौनिहालों के बचपन को बचाने के लिए आंदोलन न करते। अगर मानवीय मूल्य ज़िंदा न होते तो महात्मा गांधी, मदर टेरेसा, नैल्सन मंडेला जैसे लोग भी मज़लूम लोगों के शॊषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद न करते। अगर स्वार्थपूर्ण और विलासिता भरा जीवन ही सबकुछ है, तो अमेरिका के राष्ट्र्पति होते हुए अब्राहम लिंकन ईमानदारी को अपनी जीवनशैली क्यों बनाए रखते? मुझे क्या लेना? - ये वो जुमला है जिसके चारों ओर आकर हमारी आधुनिक जीवनशैली किसी हद तक केंद्रित हो गयी हैं। कोई पड़ोसी के घर को कोई लूट रहा है और हम कहते हैं - अपनी नींद क्यों खराब करूं, मुझे क्या लेना? कोई अकेला पड़ा बिमार मर रहा है, तो मरे, उसकी तिमारदारी क्यों करें? आपको क्या लेना? हम भूल रहें हैं कि जिस दरख़्त के साये में आज हम धूप की गर्मी से निजात पा रहे हो, कई सालों पहले उसे उगाने वाले ने ये नहीं कहा था: " "मुझे क्या लेना।" इंसान तब तक इंसान है, जब तक उसमें इंसानियत ज़िंदा है और जब तक इंसानियत ज़िंदा है, तब तक इंसान ज़िंदा है। जब इंसान के अंदर का इंसान मरने लगता है, तब मानव संवेदनाएं दम तोड़ने लगती है। तब सहानुभूति, दया, परोपकार, उत्सर्ग, ईमानदारी जैसे गुण कहीं खोने लग जाते हैं। इंसान को ज़िंदा रहने के लिए दो वक्त की रोटी चाहिए और मरने के लिए दो गज़ ज़मीन, परन्तु आज वह दूसरे की थाली की दो रोटियां भी छीन लेना चाहता है और फ़िर भी अगर पेट नहीं भरता, तो करोड़ों का चारा भी खा लेता है। कोई अपनी प्यास की खातिर पूरे दरिया को कब्ज़ा कर बैठा है और दूसरों के हिस्से के कतरों पर भी नज़रें गढ़ाए बैठा है। मानव मर्यादाएं जब मर जाती हैं, तो एक नहीं, कई निर्भयाओं की अस्मत को तार-तार कर दिया जाता है। जब सिक्कों की खनक ही सब कुछ हो जाए, तो उस खनक की खातिर अस्पतालों में नवजात शिशुओं को भी बदल दिया जाता है। जब दया का पानी सूख जाता है, तो दरिंदा बन कर इंसान न जाने युग जैसे कितने मासूमों को बेरहमी से मौत की नींद सुला देता है। जब इंसान दौलत के मद में अंधा हो जाता है और मजलूम व बेसहारा लोगों पर गाड़ी चढ़ा लेने के बाद भी वह पाकदामन हो आज़ाद निकल जाता हैं, तब इंसाफ़ का कहीं न कहीं कत्ल ज़रूर होता है। कोई बेचारा दुर्घटना के कारण सड़क पर तड़प रहा होता है और कोई उसका वीडिओ बना कर फ़ेसबुक पर अपलोड करने में मसरूफ़ होता है। कहीं पुलिस या अदालत आड़े-तिरछे सवाल न पूछ ले, इस डर से उसे अस्पताल पहुंचाने की ज़हमत कोई-कोई ही करता है। वो कहता है - कौन पचड़े में पड़े? अगर जगह कम भीड़-भाड़ वाली हो, तो कोई गिद्ध दृष्टि गड़ा कर उसका माल हड़प्प कर रफ़्फ़ू चक्क्कर होने की ताक में रहता है। अस्पताल में कोई रोगी तरस रहा होता है कि ख़ुदा के नाम पर उसे ख़ून के चंद कतरे मयस्सर हो जाए, उधर ख़ुदा के नाम पर सड़कों पर लोग ख़ून बहाने पर आमादा होते हैं। विषादित करने वाला पहलू यह है कि हमारे समाज में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो ज्ञान और जानकारियों से सराबोर हैं, परन्तु ऐसे लोगों की बहुत कमी हैं जिनमें इंसान मौज़ूद है। ज्ञान के सारे पाठ तो इंसान ने पढ़ लिये, लेकिन इंसानियत का सबक किसी किताब के पन्ने में दफ़न हो कर रह गया। आज शिक्षण संस्थानों में इंसानियत के सबक सिखाने और सीखने की सख्त दरकार है। पढ़ना-लिखना आ जाए, अंगूठे की छाप की जगह हस्ताक्षर करना आ जाए, डिग्री प्राप्त हो जाए, फ़िर नौकरी हासिल करना और पैसा कमाने की मशीन बनना, क्या यही शिक्षा है? शिक्षा का मतलब केवल जानकारी इकट्ठा करना ही नहीं है, बल्कि एक बेहतर इंसान बनाना इसका मूल उद्देश्य है। मूल्यहीन शिक्षा अनर्थकारी हो सकती है। मानव मूल्यों को छोड़ कर केवल मस्तिष्क से शिक्षित होने का मतलब है समाज के लिए पढ़े-लिखे शैतान तैयार करना। ज्ञानी तो रावण भी कम नहीं था। इंसानियत के बगैर इंसान उस खुदा की तरह है, जो खुदा तो है पर उसमें फ़रिश्तों जैसा दिल नहीं। फ़रिश्तों का दिल नहीं, तो ख़ुदा कैसा और अगर इंसानियत नहीं, तो इंसान कैसा? मनुष्य चाहे कितना ही सुंदर हो, परन्तु यदि वह मानवीय मूल्यों से शून्य है, तो उसमें और पशु में कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं। माना कल जिसका कत्ल हुआ, वो आपका बेटा, भाई कुछ नहीं था। माना कल जिसकी अस्मत लुटी थी, वो आपकी बहू या बेटी नहीं थी। अगर आपको आज उनसे कुछ नहीं लेना, तो कल जब आपके बेटे, आपके भाई, आपकी बहू, आपकी बेटी के साथ ऐसा घट गया, तो फ़िर किसी को क्यों आपसे कुछ लेना? ये मंज़र देख कर, सुन कर अगर आप का भी दिल नहीं दहलता, आप का दिल नहीं पसीजता, आप कोई सिहरन महसूस नहीं करते, तो कहीं आप के अंदर का इंसान भी मर तो नहीं रहा? कहीं आपके अंदर की संवेदनाएं भी खत्म तो नहीं हो रही? कहीं आप भी ये तसल्ली दे कर तो खामोश नहीं बैठ गए हैं - मुझे क्या लेना? बहुत खतरनाक होता है बेज़ान खामोशी से भर ज़ाना। अगर आप को कुछ नहीं लेना, तो बस डॉ नवाज़ देवबंदी साहब की ये लाइनें आप से कहना चाहुंगा, बाकि मुझे क्या लेना?
उसके कत्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया
मेरे कत्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है