देश के प्रधानमंत्री महोदय ने 8 नवंबर की शाम राष्ट्र के नाम एक आवाज़ दी - विमुद्रिकरण, 1000 और 500 के नोट बंद! इस उद्घोष को सुनकर राष्ट्र के आम जनकंठ से आवाज़ आयी - हम सब एक हैं। अगले दिन तड़के से हर बैंक व ए टी एम के सामने लंबी कतारों में आम लोग खड़े होने लगे और कहीं उन्हीं कतार में एक आम आदमी मैं भी था। कतार में लगा मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि काला धन और भ्र्ष्टाचार को समाप्त करने की इस कवायद का मैं भी हिस्सा हूं।
हर शहर, हर गांव, हर गली, हर कूचे में आजकल एक पर्व चल रहा है जिसे ईमानदारी का महकुंभ कहा जा रहा है। अखबारों के पन्नों में, टी वी चैनल्स पर, आम सड़क पर, कार्यालयों में चर्चा-ए-आम है कि काले धन वालों की अब खैर नहीं। बैंकों के आहातों में, एटी एम के आगे लंबी लंबी कतारें इस बात का सबूत हैं कि आम आदमी चाहे अनचाहे काले धन के विरूद्ध खड़ा है। लोग अपनी नींद, चैन त्याग कर घंटों कतारों में इंतज़ार कर रहे हैं क्योंकि उनकी ज़ेबों में जो 500 या 1000 के जो नोट हैं वे कह रहे हैं- हमें फ़िर से अपना बना लो सनम। इन नोटों को फ़िर से अपना बनाने की जदोजहद में परेशान तो वे ज़रूर हैं, फ़िर भी इस मुहीम का विरोध नहीं कर रहे।
हालांकि खबरें हैं कि कई लोगों की जीवन लीला भी इस ठेलम ठेल में चली गयीं, मगर आम आदमी की तरफ़ से कहीं कोई विरोध का हो-हल्ला नहीं। कोई तड़के आ कर कतारबद्ध हो जाता है और जब सांझ होते भी उसका नंबर नहीं आता, वह निराश हो कहता है- आ अब लौट चले। अगले दिन फ़िर कतारबद्ध होने के लिए फ़िर पहुंचता है और भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध चली इस मुहीम का वह फ़िर एक हिस्सा बन जाता है। उफ़ और ओफ़ तो करता है पर सरकार के विमुद्रिकरण के इस कदम को कतई नहीं कोसता, उल्टे दो चार अल्फ़ाज़ समर्थन के कह देता है। कई गृहिणियों को इस चीज़ का मलाल तो है कि उनके द्वारा चोरी से संजोया हुआ धन जा भी रहा है और घर वालों की नज़र में भी आ गया है। उन्हें अपनी इस छोटी सी आर्थिक आज़ादी की छिनने की टीस तो है, परन्तु इसे राष्ट्रहित की कवायद मानकर उन्होंने भी खुद को तसल्ली दे दी है।
मज़दूर, किसान, दिहाड़ीदार, रिक्शा वाले, पान वाले, ठेले लाले - इन सब में किसी ने रोटी त्यागी, किसी का चुल्हा नहीं ज़ला, तो किसी को अपनी रोज़ी से हाथ धोना पड़ा, पर विरोध का एक भी नारा नहीं लगाया। हां। कुछ राजनितिक दल जरूर चिल्ला रहे हैं। हो सकता है उनके सवाल ज़ायज़ हों, परन्तु उनके इस विरोध को आम लोग छलावा ही समझ रहे है। देश का आम लोग सरकार की इस मुहीम की कतार में ज़रूर शामिल है, परन्तु खास लोग खास तौर से नज़र नहीं आ रहे। हल्ला ये है कि इन धनकुबेरों की नींद हराम है, परन्तु क्या वाकयी असलियत में ऐसा है?
एक पहलू ये है कि इन धनकुबेरों के बैंक खोतों में पहले ही इतना धन है कि अगर ये अपने काले धन को सफ़ेद करने का जुगाड़ नहीं भी कर पाए, तो भी इन्हें काला धन लुटने से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं क्योंकि इनके जीने के अंदाज़ में कोई ज़्यादा बदलाव नहीं आने वाला। इनका काला धन न तो बाहर आयेगा न ही ये कतार में खड़े होंगे। जाहिर है कतार में तो आम लोग ही बचे हैं क्योंकि अग्नि परीक्षा तो केवल ईमानदारों की ही होती है न। प्रधानमंत्री जी ने आग्रह किया है- सिर्फ़ पचास दिन का साथ चाहिए। यही मान कर तो आम आदमी आज कतारों में खड़ा है। पचास दिन क्या, उसने तो तो पांच साल आप के हवाले किये हैं। लेकिन उसके बाद क्या? क्या उसके बाद उसके अच्छे दिन आ जायेंगे?
आम आदमी कब ये समझे कि उसकी आशाएं पूरी हुई हैं। नोट बदलने के बाद भी आम आदमी इन अच्छे दिनों की आस में कब तक कतार में खड़ा रहेगा? उसे कब ये लगेगा कि इस नोट की अदला बदली ने उनके जीवन में बहार ला दी और उसके अच्छे दिन आ गये हैं? एक गरीब की आशा है कि काला धन खत्म होते ही शायद कुछ उसके खाते में भी आएगा। वो उम्मीद कर रहा है कि उसकी दाल, रोटी, भाजी सस्ती होगी। वो आस लगाए बैठा है दवाईयां सस्ती होगी और उसे अपनी या परिवारवालों की बिमारियों की ज़्यादा चिंता करनी की ज़रूरत नहीं होगी। उसे अपने बच्चों की उच्च औए बेहतर शिक्षा के लिए मोटी रकम की ज़रूरत नहीं होगी। एक तबका इस आशा में है कि उनका टैक्स का भारी बोझ कुछ तो हल्का होगा। बामुश्किल स्कूटर, मारुति या अल्टो 800 का जुगाड़ करने वाला आशा कर रहा है कि जल्द ही सफ़र करना उसकी जेब पर भारी नहीं पड़ेगा। निम्न मध्यम वर्ग उम्मीद लगाए बैठा है कि बैंकों से ऋण कम ब्याज़ पर मिल पाएगा। अगर बड़े बड़े नामी गिरामियों का हजारों का ऋण राइट ऑफ़ किया जा सकता है, तो कम से कम इतना तो आम आदमी सोच ही सकता है कि उसे कम ब्याज पर ॠण मिल जाए।
खबर है कुछ बैंकों ने फ़िक्स्ड डिपॉज़िट पर ब्याज़ तो कम कर दिया है, पर क्या ऋणों पर भी ब्याज़ कम होगा? कहा जा रहा है कि ज़ाली नोट के बल पर फ़ैलाए जा रहे आतंकवाद पर भी लगाम लगेगी। पर इस बात की क्या गारंटी है कि 2000 के ज़ाली नोट नहीं छपेंगे, अगर छपे तो पकड़े जाएंगे। भविष्य में ये आशा क्यों की जाए 2000 के नोट के चलते भ्र्ष्टाचार नहीं पनपेगा औए काला धन फ़िर से एकत्रित नहीं होगा? कुल मिलाकर लोगों को आशाएं है कि कुछ महीनों मे देश की शक्लोसूरत बेहतर होगी। कुछ सवाल भी है, पर सवाल तो हर काम के साथ जुड़े होते हैं और आशा है सरकार जवाब भी तलाशेगी। मगर आम आदमी के इतने सहयोग के बाद भी अगर सरकार के दावे सच्च साबित नहीं होते और लोगों के सपने साकार नहीं होते तो वे यही कह सकते है - हमें उनसे थी वफ़ा की उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है? उस स्थिति में भी आम आदमी के ही सपने टूटेंगे और खास फ़िर खास बना रहेगा। आशा तो ये है कि आम आदमी के जीवन की बगिया में बहार आएगी। इसलिए काले धन के विरुद्ध इस कतार में मैं भी खड़ा हूं।