जिस देश में शिष्य अपने गुरु को
देवतुल्य मानता आया है, वहीं आज इस रिश्ते में इतनी
तलखी और हिकारत आ गयी है कि नौबत कत्ल तक पहुंच जाती है। कुछ दिन पहले दिल्ली के
सुलतानपुरी इलाके के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक का उसके ही शिष्य ने कत्ल कर
दिया था। यह घटना गुरु-शिष्य के बीच बिगड़ते रिश्ते की पराकाष्ठा है। ऐसा पहली बार
नहीं हुआ है कि शिष्य गुरु का कत्ल तक करने पर उतर आया हो। दिसंबर 2014 में झारखंड
के एक स्कूल के सातवी कक्षा के तीन छात्रों ने अपने अध्यापक को इसलिए मार डाला
क्योंकि उक्त अध्यापक ने उन्हें धुम्रपान न करने की सलाह दी थी। फ़रवरी 2012 में
चिन्नई के एक स्कूल में नवी कक्षा के छात्र ने चाकू से अपने अध्यापक की जान ले ली।
हमारे प्रदेश में भी इस तरह की घटनाएं होती आयी हैं। 14 दिसम्बर 1998 में अरसू के
एक सरकारी स्कूल के नवी कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य पर सरिये से वार किया
जिसके कारण उनकी मौत हो गयी। अगस्त 2014 में संजौली कॉलेज में छात्रों ने
प्रधानाचार्य व अन्य शिक्षकों के साथ मार-पीट की थी। पिछले महिने गंगथ के सरकारी
स्कूल के एक छात्र ने सुबह-सवेरे स्कूल ग्राउंड में प्रधानाचार्य का गला पकड़ लिया
था। उनकी गलती ये थी कि उन्होंने उस छात्र को एक विद्यार्थि की तरह अनुशासित होने
की हिदायत दी थी। अध्यापकों से थप्पड़बाज़ी, गालीगलौज, बदसलूकी जैसी घटनाएं तो अब आम होती जा रहीं हैं।
जिस देश का इतिहास गुरु-शिष्य की आदर्श
परंपरा के उदाहरणों से भरा पड़ा है, उस देश में आज
गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती खाई एक समस्या बनती जा रही है। विद्यालय में मुल्क के
भविष्य को सींचा जाता है और भाग्य की रेखाएं खींची जाती है। इस मुकदस जगह पर इल्म
के चिराग जला कर गुरु अपने शिष्य के अ ज्ञान के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करता
है और उसे अनुशासन, संस्कार और शिष्टाचार का सबक पढ़ाता
है। परन्तु जो कुछ घटित हो रहा है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि
धीरे-धीरे शिक्षण संस्थान अनुशासनहीनता, बदज़ुबानी, मारपीट, और हिंसा का केंद्र बनते जा रहे हैं। आज गुरु-शिष्य के संबंधों में वो
आत्मीयता नहीं रही। अगर अपने शिष्य को सही राह दिखाना, पथभ्रष्ट होने से रोकना, गलती पर टोकना, उसे अनुशासित रहने का सबक सिखाना गुरु के लिए अब
गुनाह हो गया है, तो आखिर इन शिक्षा के मंदिरों का
औचित्य क्या है? यदि शिक्षण संस्थानों में ऐसा होता
रहा, तो ऐसे असुरक्षित वातावरण में गुरु
कैसे अपने कर्तब्य का निर्वाह कर पाएगा? क्या संत कबीर जी की ये पंक्तिया सिर्फ़ किताबी छलावा है?
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट
गुरु और शिष्य की बीच की तना-तनी
का एक कारण यह है कि दोनों कक्षा में एक दूसरे से मिलते तो हैं, परन्तु उनमें संवाद नहीं होता। गुरु की बात शिष्य
नहीं समझ पाता और गुरु शिष्य तक नहीं पहुंच पाता। पढ़ाई किताबों से नहीं, बल्कि दिल से होती है। यदि अध्यापक शिष्य को नहीं समझ
पा रहा है, तो बेहतर है अध्यापक शिष्य को
समझे। अध्यापक और शिष्य का रिश्ता वर्चस्व स्थापित करने का नहीं, बल्कि आपसी समझ का एक ज़हनी रिश्ता है।
गुरु-शिष्य के बीच बढ़्ती दूरियों
के लिए अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। अभिभावक समझते हैं कि शिक्षक महज़ एक कर्मचारी
हैं जिसे सरकार मोटी तनख्वाह दे रही है या वे मोटी रकम फीस के रूप में अदा कर रहे
हैं। वे भूल गए हैं कि गुरु-शिष्य का रिश्ता ग्राहक और दुकानदार का पेशा नहीं है।
शिक्षण ऐसा कार्य है, जिसमें शिष्य में ज्ञान प्राप्ति
का जुनून व समर्पण की भावना होनी चाहिए और गुरु में अपने ध्येय के प्रति निष्ठा।
बच्चों के मन में शिक्षक के प्रति आदर-भाव भरने की बात तो दूर, अभिभावक उनकी शिकायत करने या उनके विरुद्ध मुकद्दमा
दायर करने के लिए आतुर रहते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों में गुरु के लिए सम्मान की
भावना कैसे विकसित होगी? हालांकि विद्यालयों
में एस एम सी गुरु-शिष्य-वालदेन के रिश्तों को सुदृड़ करने में अहम भूमिका निभा
सकती है। परन्तु ज़्यादातर एस एम सी के सदस्य या तो निष्क्रीय हैं या फ़िर शैक्षणिक
कार्यों को पीछे रख कर राजनीति में ज़्यादा रूची लेते हैं।
घर बच्चे की पहली पाठशाला होती है
और मा-बाप पहले अध्यापक। बच्चों के मानस पटल पर घर के माहौल और वहां मिल रही
तरबीयत का गहरा असर होता है। जिस अत्यधिक खुले वातावरण में आज बच्चे पल रहे हैं, उसने उनका भला कम और नुक्सान ज़्यादा किया है। अति
सर्वत्र वर्जयेत अर्थात किसी भी चीज़ का आवश्यकता से अधिक होना नुकसानदेह होता है।
कुछ माता-पिता ’बैस्ट पापा’ या ’बैस्ट मॉम’ कहलाने के चक्कर में अपने बच्चॊ की हर
बात या मांग पर ’यैस’ कहने की होड़ में शामिल रहते हैं। इस होड़ में न माता-पिता, न ही बच्चे ये समझ पाते हैं कि ’नो’ शब्द की अहमियत
कितनी है। ’यैस’ को सुनते-सुनते बच्चे को ’नो’ सुनना अखरने लगता है। अनुशासन में
बंधना उसे बोझ लगने लगता है। ’दरवाज़ा खुला है’ वाली निति पर चलते-चलते पता भी नहीं
चलता कि बच्चा कब हाथ से निकल गया और राह से भटक गया। वास्तव में आज उचित समय पर
कहा गया ’नो’ कल बच्चे के भविष्य के लिए ’यैस’ साबित होता है। मा बाप को याद रखना
चाहिए कि एक चिंगारी को बुझाने के लिए चुल्लु भर पानी भी काफ़ी होता है, मगर जब वह ज्वाला बन जाए, तो दमकल विभाग का टनों पानी भी कुछ नहीं कर पाता। उठते ज़ख्म को वक्त पर दवा न
मिले तो वह नासूर बन जाता है। बच्चे की बेहतर परवरिश के लिए डांट व दुलार, फ़टकार व तारीफ़, थपेड़े व पुचकार की ज़रूरत होती है, ताकि उसका विकास एकतरफ़ा न हो। शायर राहत इंदौरी ने सही फ़रमाया है:
नई हवाओं की सोहबत
बिगाड़ देती है, कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती
है.
जो जुर्म करते हैं
इतने बुरे नही होते सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है