भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान, भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता है। जाहिर है कि यह अधिनियम उस समय बनाया गया था, जब भारत पर ब्रितानी (अंग्रेजों) हुकूमत कायम थी। इस कानून का उद्देश्य ब्रिटिश हितों को साधना था। पुलिस का काम जनता पर नियंत्रण रखना था, ताकि कानून और व्यवस्था इस तरह बनी रही कि अंग्रेज हुक्मरानों को भारत का दोहन करने में कोई दिक्कत पेश न आए। स्पष्ट है कि इस कानून से नियंत्रित होने वाली भारतीय पुलिस की मानसिकता इस तरह विकसित की गई है कि वह हुक्मरानों के प्रति ही खुद को जवाबदेह मानती है, जनता के प्रति नहीं, जबकि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है। इसलिए जनता की सेवा करना या उसे राहत पहुंचाना भारतीय पुलिस की आदत में नहीं है। जनता को रियाया मान कर उस पर रौबदारी के साथ हुक्म चलाना और अगर वह न माने तो डंडे के जोर पर उसे नियंत्रित करना उसकी आदत है।
नतीजतन, आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है, वह जनसेवक की नहीं बल्कि अत्याचारी की है। लुटे, पिटे, शोषित लोग अपनी फरियाद लेकर थाने नहीं जाते, क्योंकि उन्हें पुलिस से न्याय मिलने की उम्मीद ही नहीं होती है। आश्चर्य की बात है कि पिछले 65 वर्षों से हम इस दकियानूसी कानून को ढोते चले आ रहे हैं। हालांकि 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया, जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर, उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधरों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की, पर बड़े दुख की बात है कि इतने साल बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद 1997 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री इंद्रजीत गुप्ता ने सभी मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व संघ शासित प्रदेशों के प्रशासकों को एक पत्र लिख कर पुलिस व्यवस्था में सुधार के कुछ सुझाव भेजे। जिनकी उपेक्षा कर दी गई। फिर 1998 में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया, जिसने मार्च 1999 तक अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी, पर इनकी सिफारिशें भी आज तक धूल खा रही हैं। इसके बाद पद्मनाभइया की अध्यक्षता में एक और समिति गठिन की गयी। जिसने सुधारों की एक लंबी फेहरिश्त केन्द्र सरकार को भेजी, पर आज तक कुछ नहीं हुआ।
दरअसल देश पर राज कर रहे काले अंग्रेज(हमारे नेता) पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव ही नहीं करना चाहते हैं। इसीलिए आजादी के 65 साल बाद भी देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। आज हर सत्ताधीश राजनेता(काले अंग्रेज) पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझते हैं। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारों ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिवारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण जैसे घटिया कामों में इस देश की ज्यादातर पुलिस का समय बरबाद होता है। इतना ही नहीं पुलिस का दुरुपयोग अपने मतदाताओं को प्रभावित करने, उन्हें नियंत्रित करने, अपने कार्यकर्ताओं व चमचों के अपराधों को छिपाने और विरोधियों को प्रताड़ित करने के लिए भी किया जाता है। वहीं पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगा रहता है, क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर, उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग ना करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद और भ्रष्टाचार फैलता जा रहा है। अपनी जाति के नेताओं के गैरकानूनी आदेशों का पालन करना और अन्य लोगों से रिश्वत लेने के साथ ही उन्हें प्रताड़ित करना, प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। जिसका खामियाजा देश की जनता भुगत रही है। वहीं नेता(काले अंग्रेज) जनता के वोटों और नोटों से देश पर गैरकानूनी तरीके से राज कर रहे हैं।
हैरानी की बात ये है कि एक तरफ तो हम आधुनिकीकरण की बात करते हैं और जरा-जरा सी बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को जनता की मदद करते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है, जबकि हमारे यहां यह स्वप्न देखने जैसा है। पुलिस का नाम लेते ही लोगों में खौफ समा जाता है। वह चुप रहने में अपनी भलाई समझते हैं।
पुलिस आयोग और समितियों की सिफारिशों का सार निम्नलिखित है:
पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो।
पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए।
उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए।
पुलिस का दुरूपयोग रोका जाए।
उनका राजनीतिकरण रोका जाए।
पुलिस पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए।
उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों।
पुलिस महानिदेशकों के चुनाव में न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो।
पुलिसकर्मियों के तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो।
उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों।
पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें।
मुझे लगता है कि अगर देश की जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले, तो उसे इस अन्याय के खिलाफ खुद खड़ा होना पड़ेगा और पुलिस सुधार के लिए सरकार के खिलाफ एक सशक्त अभियान चलाना होगा, तभी इस गुलामी से निजात मिलेगी।
(ये लेख अधिकरएक्सप्रेस्स से लिया गया है.....)