shabd-logo

भटकती है वह यूँ ही कस्तूरी मृग सी

16 जुलाई 2018

187 बार देखा गया 187

वजूद स्त्रियों का

खण्ड -खण्ड

बिखरा-बिखरा सा।


मायके के देश से ,

ससुराल के परदेश में

एक सरहद से

दूसरी सरहद तक।


कितनी किरचें

कितनी छीलन बचती है

वजूद को समेटने में।


छिले हृदय में

रिसती है

धीरे -धीरे

वजूद बचाती।

ढूंढती,

और समेटती।


जलती हैं

धीरे-धीरे

बिना अग्नि - धुएं के

राख हो जाने तक।


धंसती है

धीरे -धीरे

पोली जमीन में ,

नहीं मिलती ,

थाह फिर भी

अपने वजूद की।


नहीं मिलती थाह उसे

जमीन में भी ,

क्यूंकि उसे नहीं मालूम

उसकी जगह है

ऊँचे आसमानों में।


इस सरहद से

उस सरहद की उलझन में

भूल गई है

अपने पंख कहीं रख कर।


भटकती है

वह यूँ ही

कस्तूरी मृग सी।



उपासना सियाग







उपासना सियाग की अन्य किताबें

मयंक बाजपेई

मयंक बाजपेई

वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती कविता ...

19 जुलाई 2018

मंजु   तंवर

मंजु तंवर

अच्छी कविता हैं

17 जुलाई 2018

1

जिंदगी --- एक दिन

15 जुलाई 2018
0
3
4

रात के दस बजे हैं सब अपने -अपने कमरों में जा चुके हैं। आरुषि ही है जो अपने काम को फिनिशिंग टच दे रही है कि कल सुबह कोई कमी ना रह जाये और फिर स्कूल को देर हो जाये। अपने स्कूल की वही प्रिंसिपल है और टीचर भी, हां चपड़ासी भी तो वही है ! सोच कर मुस्कुरा दी। मुस्

2

भटकती है वह यूँ ही कस्तूरी मृग सी

16 जुलाई 2018
0
6
2

वजूद स्त्रियों का खण्ड -खण्डबिखरा-बिखरा सा। मायके के देश से ,ससुराल के परदेश में एक सरहद से दूसरी सरहद तक। कितनी किरचें कितनी छीलन बचती है वजूद को समेटने में। छिले हृदय में रिसती है धीरे -धीरे वजूद बचाती। ढूंढती,और समेटती। जलती हैं धीरे-धीरे बिना अग्नि - धुएं केराख हो ज

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए