वजूद स्त्रियों का
खण्ड -खण्ड
बिखरा-बिखरा सा।
मायके के देश से ,
ससुराल के परदेश में
एक सरहद से
दूसरी सरहद तक।
कितनी किरचें
कितनी छीलन बचती है
वजूद को समेटने में।
छिले हृदय में
रिसती है
धीरे -धीरे
वजूद बचाती।
ढूंढती,
और समेटती।
जलती हैं
धीरे-धीरे
बिना अग्नि - धुएं के
राख हो जाने तक।
धंसती है
धीरे -धीरे
पोली जमीन में ,
नहीं मिलती ,
थाह फिर भी
अपने वजूद की।
नहीं मिलती थाह उसे
जमीन में भी ,
क्यूंकि उसे नहीं मालूम
उसकी जगह है
ऊँचे आसमानों में।
इस सरहद से
उस सरहद की उलझन में
भूल गई है
अपने पंख कहीं रख कर।
भटकती है
वह यूँ ही
कस्तूरी मृग सी।
उपासना सियाग