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ज्योतिषी और लेखन

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भटकती है वह यूँ ही कस्तूरी मृग सी

16 जुलाई 2018
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वजूद स्त्रियों का खण्ड -खण्डबिखरा-बिखरा सा। मायके के देश से ,ससुराल के परदेश में एक सरहद से दूसरी सरहद तक। कितनी किरचें कितनी छीलन बचती है वजूद को समेटने में। छिले हृदय में रिसती है धीरे -धीरे वजूद बचाती। ढूंढती,और समेटती। जलती हैं धीरे-धीरे बिना अग्नि - धुएं केराख हो ज

जिंदगी --- एक दिन

15 जुलाई 2018
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रात के दस बजे हैं सब अपने -अपने कमरों में जा चुके हैं। आरुषि ही है जो अपने काम को फिनिशिंग टच दे रही है कि कल सुबह कोई कमी ना रह जाये और फिर स्कूल को देर हो जाये। अपने स्कूल की वही प्रिंसिपल है और टीचर भी, हां चपड़ासी भी तो वही है ! सोच कर मुस्कुरा दी। मुस्

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