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ब्राह्मण होना अभिशाप है या वरदान?

10 दिसम्बर 2017

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- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री” (इस लेख का कोई भी अंश अथवा सम्पूर्ण लेख प्रकाशित करने से हेतु लेखक की पूर्व अनुमति अनिवार्य है)


आजकल ब्राह्मण समाज का अपमान करना और उनका खुलेआम विरोध करना मानों एक फैशन सा बन गया है. जिसे देखो वही ब्राह्मणों को देश और समाज की तथाकथित दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराने में लगा है. एक समय में पुरे हिन्दू समाज का नेतृत्व करने वाले ब्राह्मण आज स्वयं ही नेतृत्व विहीन हो चुके हैं. एक समय में पुरे हिन्दू समाज का मार्गदर्शन करने वाले ब्राह्मण आज खुद उचित मार्ग की तलाश में भटकते घूम रहे हैं. एक समय था जब ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे, जबकि आज ब्राह्मण को बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता है. कुछ लोग ब्राह्मणों को समाज में फैली तथाकथित जातिवाद के लिए पूर्णतया दोषी मानते हैं. आज सामाजिक द्रष्टिकोण से ब्राह्मण काफी पिछड़ने लगा है. जहाँ तक आर्थिक द्रष्टिकोण का सवाल है, उसमें भी ब्राह्मण बेहद पिछड़ चूका है. आज सड़क के किनारे खोमचा लगाने वाला एक ब्राह्मण हर शहर में मिल जायेगा. नौकरी की तलाश में भटकते-भटकते वह थक चूका है. व्यापार करने के लिए उसके पास न तो आवश्यक धन है और न ही अनुभव. बड़ी-बड़ी डिग्रियों का बोझ कंधे पर लादे वह एक दफ्तर से दुसरे दफ्तर में ठोकरें खाता घूम रहा है. कर्मकांड के नाम पर मन्दिर में घंटी बजाने के अलावा उसके पास कुछ भी नहीं है, और उसमें भी उसको एक वक्त की रोटी लायक धन भी प्राप्त नहीं हो पाता. जहाँ तक राजनितिक स्तर की बात है, उसमें भी ब्राह्मण की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. अभी हाल ही में मेरी बीजेपी के एक दिग्गज ब्राह्मण नेता जी से बात हुई. जब मैंने उनसे कहा कि नेता जी, अब तो आप सत्ता में हैं, क्या अब भी आप ब्राह्मणों के लिए नहीं सोचेंगे. तब उन नेताजी ने मुझसे कहा कि “शास्त्री जी, मुझे ब्राह्मणों ने नेता नहीं बनाया बलिक उन्होंने तो मुझे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.” एक बड़े ब्राह्मण पत्रकार जो कि मेरे परम मित्रों में से हैं, जब मैंने ब्राह्मणों के उत्थान पर बातचीत की तब उन्होंने मुझसे एक कहानी सुनाई. उन्होंने बताया कि “शास्त्री जी, ब्राह्मण वो मेंढक हैं जो एक दुसरे की टांग तो खींच सकते हैं लेकिन किसी को अपने कंधों का सहारा देकर ऊपर नहीं चढ़ा सकते.” उनके शब्दों में “ब्राह्मण सबसे पहले नुकसान ब्राह्मण का ही करता है”. अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी के एक दिग्गज ब्राह्मण नेता जी से मेरी मुलाकात हुई. मैंने उनसे कहा कि मैं समस्त ब्राह्मणों को एकजुट करने का प्रयास कर रहा हूँ और मेरा सपना है कि ब्राह्मणों की भी एक राष्ट्रिय स्तर की पार्टी हो, क्या आप मेरी सहायता करेंगे? उन्होंने हंसकर कहा कि “शास्त्री जी, आपको धन, बल या और भी किसी सहायता की आवश्यकता हो, तो आप बेहिचक मेरे पास आ जाइये. लेकिन मुझसे कभी ये अपेक्षा मत करना कि मैं आपके साथ किसी मंच पर आऊंगा. उन्होंने कहा कि शास्त्री जी, कांग्रेस तो खुद एक समय में ब्राह्मणों की ही पार्टी मानी जाती थी और स्व. जवाहर लाल नेहरु तो खुद को पंडित जवाहर लाल नेहरु लिखते थे. लेकिन आज उसी कांग्रेस की हालत आपके सामने है.” बहुजन समाजवादी पार्टी के एक दिग्गज नेता जी ने मुझसे कहा था कि “शास्त्री जी, ब्राह्मण कभी एक नहीं हो सकते, क्योंकि इनका कोई नेता ही नहीं है, और नेता इसलिए नहीं है क्योंकि ये सब अपने को नेता मानते हैं.” कई ब्राह्मण संगठनों के नेताओं से मेरी बातचीत हुई, और लगभग सभी ने एक ही बात कही, और वो ये कि “ब्राह्मण, पुरे समाज का नेता बन सकता है लेकिन खुद अपने ही समाज में उसकी कोई गिनती नहीं होती.” दिल्ली सचिवालय में एक वरिष्ठ आई ए एस जो कि ब्राह्मण हैं, ने एक बार मुझे एक मैसेज भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि “ब्राह्मणों की सबसे बड़ी दिक्कत है कि ये अपने को सर्वश्रेष्ट मानते हैं, और उससे भी बड़ी दुर्भाग्य की बात ये है कि जब कभी भी ब्राह्मणों की एकजुटता बात की जाती है, तब उसमें सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करने वाले भी ब्राह्मण ही होते हैं.” अंत में इतना ही कहूँगा कि मेरा उद्देश्य ब्राह्मण समाज की बुराइयाँ करने अथवा ब्राह्मण समाज की गलतियाँ बताकर किसी को निरुत्साहित करने का नहीं है. वरन ये बताने का है कि अब समय आ गया है कि सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज आत्ममंथन करे कि आखिर ब्राह्मणों की दुर्दशा का वास्तविक कारण कहीं स्वयम ब्राह्मण ही तो नहीं हैं. आज आवश्यकता इस बात की है कि ब्राह्मण एक सर्वमान्य नेता चुनें. आज जरूरत इस बात की भी है कि हम ये समझ लें कि जिस खोखले मान-सम्मान को हम लिए घूम रहे हैं, उसकी आज समाज में कोई कीमत नहीं. ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं इस बात से कोई इंकार मुझे नहीं, किन्तु सर्वश्रेष्ठ हैं, इस बात को मैं नहीं मानता. गर्व होना अच्छी बात है किन्तु अहंकार करना कदापि उचित नहीं. आज हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूल चुके हैं. ब्राह्मण ने सदा समाज का नेतृत्व किया है किन्तु आज ब्राह्मण स्वयं नेतृत्वविहीन हो गया है, दिशाहीन हो गया है, स्वार्थी हो गया है. कबूतर की तरह ऑंखें बंद करने से आप बिल्ली से नहीं बच सकते. समय और परिस्थिति के अनुसार जो नहीं चलता वो संघर्ष नहीं कर पाता और जो संघर्ष नहीं कर पाता, वो अपने अस्तित्व को खो देता है. कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढियां इस बात पर शर्मिंदा हों कि वो एक ब्राह्मण हैं. ब्राह्मण होना अभिशाप है या वरदान भविष्य में कहीं ये मंथन का विषय न बन जाये. ये मेरे खुद के विचार हैं, आपका इनसे सहमत होना या न होना जरूरी नहीं, अपने कटु शब्दों के लिए मैं क्षमा चाहूँगा. धन्यवाद.

-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”

ब्राह्मण संस्कृति सेवासंघ

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