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चाणक्य से चाटुकार बन गए हैं ब्राह्मण

17 दिसम्बर 2017

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featured image प्रिय ब्राह्मण बंधुओं, आप सभी हमारा सादर प्रणाम बंधुओं, आज ब्राह्मण समाज आपसी प्रतिद्वंदता के चलते बिखर गया है. एक समय में पुरे सनातन समाज का नेतृत्व करने वाला ब्राहमण स्वयं ही नेतृत्वविहीन हो चूका है, सदा से दूसरों का मार्गदर्शन करने वाला ब्राहमण समाज आज खुद ही दिशाहीन हो चूका है. एक समय था कि हम बड़े गर्व से कहते थे कि हम ब्राह्मण हैं किन्तु बड़े दुःख का विषय है कि आज हमने अपने आप को ब्राह्मण कहने में भी लज्जा आती है. उसका कारण हम स्वयं ही हैं, ऐसा मेरा मानना है. भगवान बजरंग बली की तरह हम अपने बल और सामर्थ्य को भूल चुके हैं. आज हमारा कोई भी सर्वमान्य नेता नहीं है बल्कि हम स्वयंभू नेता बन गये हैं. कुकुरमुत्तों की तरह ब्राह्मण संगठन हर शहर में उगने लगे हैं, इन संगठनों के स्वयंभू नेता पुरे ब्राह्मण समाज के कथित ठेकेदार बन गए हैं. हम आपस में ही एक-दुसरे को नीचा दिखाने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं. एक समय में राजनीति में संकटमोचक की भूमिका निभाने वाला ब्राह्मण आज राजनीति से अलग-थलग सा हो गया है. एक समय में विधानसभाओं और लोकसभा में 70-75 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करने वाला ब्राह्मण आज मात्र 7 प्रतिशत ही रह गया है. एक समय का मुख्य राजनीतिज्ञों का सलाहकार रहने वाला ब्राह्मण छुटभय्ये नेताओं का चाटुकार बन गया है. हम आज भी अपने को चाणक्य मानकर जी रहे हैं जबकि धरातल पर देखा जाये तो हम चाणक्य से चाटुकार बन गए हैं. एक प्रसिद्ध वेबसाईट में छपे एक लेख के अनुसार राजनितिक विश्लेषक महेंद्र सुमन का कहना है कि “ब्राह्मणों को एतिहासिक सम्मोह छोड़ना होगा. वे अब भी अतीत में ही जी रहे हैं, उनकी यही गति होनी थी.” उत्तर प्रदेश की राजनीती में ४० साल तक ब्राह्मणों का दबदबा रहा. यहाँ अब तक बने मुख्यमंत्रियों में से सबसे अधिक ६ मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही थे, अगर कुल कार्यकाल पर नजर डालें तो २३ वर्षों तक प्रदेश की कमान ब्राह्मणों के हाथ में ही रही. लेकिन आज हमारी स्थिति क्या है ये किसी से छुपा नहीं है. आजादी के बाद पहली बार जब देश के २२ राज्यों के चुनाव हुए थे तो १३ राज्यों की कमान सम्भालने वाले मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही थे. आज हम फ़ुटबाल बन गए हैं, कभी इधर तो कभी इधर. कभी इस पार्टी में तो कभी उस पार्टी में. हम धीरे-धीरे अपने राजनितिक अस्तित्व को ग्रहण लगाते जा रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेई जी के बाद उत्तर प्रदेश में उनके कद का कोई भी ब्राह्मण नेता नहीं है. ब्राह्मणों के लिए विधानसभा में खुद का प्रतिनिधित्व हिंदुत्व से ज्यादा महत्व रखता है इस कडवे सत्य को हमें स्वीकार करना ही होगा. the bureaucrat news में छपे एक लेख के अनुसार देश की राजनीति में ब्राह्मणों के इस बढ़ते-घटते रहे प्रभाव पर पड़ताल की तो इसमें कई रोचक और चौंकाने वाले तथ्य सामने आये. जैसे पहली लोकसभा में हर चौथा सांसद ब्राह्मण था. लेकिन अब करीब हर दसवां सांसद ब्राह्मण है. मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद कई ब्राह्मण नेता चुनाव हारते हुए हाशिये पर चली गई. आज जिन ब्राह्मण नेताओं का बोलबाला है, उनकी राजनीति ढाई से तीन दशक पुरानी है. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से लेकर केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी और कांग्रेस के प्रमुख नेता जनार्दन दिवेदी व् मोतीलाल वोरा उस दौर के नेता हैं जब कास्ट पॉलिटिक्स करने वालों को किनारे कर दिया जाता था. आज के दौर के प्रभावशाली नेताओं में ब्राह्मण गिने-चुने ही हैं. मौजूदा राजनीति में वे कहाँ फिट बैठते हैं. यह समझा जा सकता है बिहार के एक उदहारण से, जीतराम मांझी मुख्यमंत्री के तौर पर बिहार को लीड कर रहे थे. तब उनके मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण नहीं था. जबकि बिहार में ब्राह्मणों की आबादी ९० लाख से अधिक है. आज आवश्यकता आत्ममंथन की है. हमें अपने खोये हुए अस्तित्व को फिर से पाने के लिए एकजुट होकर प्रयास करना ही होगा.

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