हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से तीन देवों का वर्णन किया गया है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, महेश अर्थात भगवान शंकर. ब्रह्मा को जगत की उत्पत्ति और प्रकृति के नियमों का जनक माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि संसार के प्रथम पुरुष यानि थे मनु अर्थात आदम. मनु का वास्तविक नाम था स्वयम्भू मनु, स्वयंभू का अर्थ है (स्वयंम प्रकट होने वाला) और इनके साथ जो प्रथम स्त्री थीं शतरूपा यानि हव्वा, अर्थात मनु और शतरूपा को ही इस स्रष्टि जनक कहा जाता है. मनु की संतानों को ही मनुष्य या मानव कहा गया. आदम से आदमी बना. माना जाता है कि मनु और शतरूपा को स्वयं ब्रह्मा ने मृत्यलोक यानि धरती पर भेजा था और उनके लिए कुछ नियम निर्धारित किये थे. दुसरे भगवान हैं विष्णु, विष्णु को पालनकर्ता माना जाता है. अर्थात इस सम्पूर्ण स्रष्टि के पालन की जिम्मेदारी भगवान विष्णु की मानी जाती है और तीसरे भगवान हैं महेश अर्थात शंकर. भगवान शंकर को संहारकर्ता माना जाता है, या यूँ कहिये कि दुष्टों का संहार करने वाले अर्थात न्याय करने वाले. इन तीनों के अतिरिक्त एक और चरित्र का वर्णन है जो हैं नारद मुनि. नारद मुनि का मूल कार्य केवल मृत्य्लोक के प्राणियों के दुःख-दर्द और समस्याओं को इन तीनों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक पहुँचाना है. अब जरा भारत की लोकतान्त्रिक संवेधानिक व्यवस्था पर द्रष्टि डालते हैं. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका. विधायिका जो नियम और कानून बनाती है, और समय व् परिस्थिति अनुसार उनमें संशोधन भी करती है, कार्यपालिका जो उन नियमों और कानूनों का पालन कराना सुनिश्चित कर देश में व्यवस्था स्थापित करती है और न्यायपालिका उन नियमों और कानूनों को कार्यपालिका द्वारा समुचित तरीके से लागु किया जाना सुनिश्चित करती है साथ ही यह भी सुनिश्चित करती है कि विधायिका द्वारा तैयार कानून तथा तत्संबंधी संशोधन भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप ही हो. लेकिन चौथा स्तम्भ यानि मीडिया का कोई संवैधानिक अर्थ नहीं है. वो केवल नारद मुनि के चरित्र का ही निर्वहन करती है. प्रजा के दुःख-दर्द और तीनों व्यवस्थाओं के बीच एक संवाद प्रस्तुत करती है. यद्दपि उसका कार्य बेहद महत्वपूर्ण है किन्तु उसके बाद भी उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है. पुराणों में नारद मुनि को नारायण, नारायण का जाप ही करते हुए दर्शाया गया है, नारायण अर्थात विष्णु अर्थात कार्यपालिका यानि executory साधारण शब्दों में कहें तो administration. आजकल मिडिया इसी कार्यपालिका अर्थात एडमिनिस्ट्रेशन के इर्द-गिर्द घुमती नजर आती है. हिन्दू धर्म में भगवान ब्रह्मा को सरस्वती यानि बुद्धि, भगवान विष्णु को लक्ष्मी अर्थात धन और भगवान शंकर को पार्वती यानि वास्तविक शक्ति का पति माना जाता है. इस द्रष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि विधायिका यानि संसद में केवल बुद्धिजीवी ही जाने चाहियें, तभी वह सर्वमान्य और जनहित कानून बना पाएंगे. कार्यपालिका के पास आवश्यक धन होना चाहिए ताकि वो उन नियम और कानूनों को सही ढंग से होना सुनिश्चित करा सकें, साथ ही जनता के हित के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ, जनता तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध हों. न्यायपालिका को वास्तविक शक्ति दी गई है ताकि वो बिना किसी भेदभाव के उचित निर्णय ले सकें और न्याय कर सकें. एक और बात है जो कि हिन्दू धर्म में विशेष है, और वो है भगवान शंकर का तीसरा नेत्र. माना जाता है कि जब भगवान शंकर का तीसरा नेत्र खुलता है तब प्रलय आ जाती है. इसका सीधा अर्थ है कि जब न्यायपालिका अपनी वास्तविक शक्ति को पूरी तरह से निष्पक्ष और निडर भाव से उपयोग में लाती है तब समस्त दुष्टों का संहार हो जाता है. देवता अर्थात जो शक्ति का सदुपयोग करता है और दानव अर्थात जो शक्ति का दुरूपयोग करता है. शक्ति दोनों के ही पास होती है. किन्तु जो शक्ति का सदुपयोग कर दुष्टजनों और दानवों का संहार करता है वही भगवान है, वही देवता है. और जो इन सबको शक्ति प्रदान करता है वही परमपिता परमेश्वर है. श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री परशुराम आदि ये सब भगवान इसीलिए माने जाते हैं क्योंकि इन्होंने दुष्टों और दानवों का संहार किया. मेरे द्रष्टिकोण से इनमें से कोई भी परमेश्वर नहीं है, ईश्वर नहीं है. ईश्वर तो वह है जिसने इन्हें शक्ति प्रदान की. वह शक्ति हममें भी है, हमारे अंदर भी ईश्वर ने वही शक्ति दी है जो उपरोक्त सभी को दी गई थी. अंतर मात्र इतना है कि उन्होंने अपनी शक्तियों को पहचाना और उनका सदुपयोग किया और हम अपनी शक्तियों को पहचान ही नहीं पाए. लोकतंत्र में वह शक्ति हमें मताधिकार के रूप में मिली है जिसका महत्व हम भूल चुके हैं, यही कारण है कि हम विधायिका में बुद्धिजीविओं के स्थान पर अनपढ़, दुर्बुद्धियों को चुनकर भेज रहे हैं और कबूतर की तरह आँख मूंदकर किसी कथित भगवान के चमत्कार की अनंत प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वो हमें बिल्ली अर्थात दुष्टों से बचा लेगा.
-ये मेरे खुद के विचार हैं, आपका इनसे सहमत होना या न होना जरूरी नहीं, अपने कटु शब्दों के लिए मैं क्षमा चाहूँगा. धन्यवाद. (इस लेख का कोई भी अंश अथवा सम्पूर्ण लेख प्रकाशित करने से हेतु लेखक की पूर्व अनुमति अनिवार्य है)
- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
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