- अभी हाल ही में देश में दो बड़ी घटनाएँ घटीं, एक घटना तब घटी जब माननीय सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जे. चम्लेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने मीडिया के समक्ष कहा कि “हम चारों इस बात से सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं जा गया तो इस देश या किसी भी देश में लोकतंत्र जिन्दा नहीं रह पायेगा. स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है.”. चूँकि हमारे सारे प्रयास बेकार हो गए, यहाँ तक कि आज सुबह भी हम चारों जाकर चीफ जस्टिस (दीपक मिश्रा) से मिले, उनसे आग्रह किया. लेकिन हम अपनी बात पर उन्हें सहमत नहीं करा सके. इसके बाद हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा कि हम देश को बताएं कि न्यायपालिका की देखभाल करें.” ये पूछने पर कि क्या आप मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाना चाहते हैं? जस्टिस चम्लेश्वर ने कहा कि “ये देश को तय करना है, हमने देश का कर्ज चुकाया है. यह पूछने पर कि वो क्या मुद्दे थे, जिसपर मुख्य न्यायाधीश का कुछ मामलों की सुनवाई को जजों सौंपना भी शामिल था.”
- दूसरी घटना में पहले से ही सजायफ्ता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू यादव को चारा घोटाले में साढ़े तीन साल की सजा सुनाई गई. ये वही लालू यादव हैं जिनके राज में अपराध, हत्या और लूट का प्रदेश में बोलबाला था, लालू के शासनकाल में राजद कार्यकर्ताओं के आगे पुलिस प्रशासन की कोई बिसात नहीं थी. शहाबुद्दीन जैसे अपराधियों को लालू का खुला संरक्षण प्राप्त था. यूँ तो ये दोनों घटनाएँ एक-दुसरे से बिलकुल अलग हैं लेकिन मेरा प्रश्न ये है कि जब लालू जैसे सजायफ्ता मुजरिम को सजा सुनाई जाती है तब माननीय न्यायलय पर जातिवाद का कथित आरोप लगाया जाता है. ये कहा जाता है कि लालू यादव पिछड़ी जाति के हैं इसलिए उन्हें जेल भेजा जा रहा है.
- एक मुजरिम को जाति के नाम पर सहानुभूति दिलाने का कुप्रयास किया जाता है. लेकिन तब कोई भी बुद्धिजीवी प्रेस कोंफ्रेसं नहीं करता. तब किसी को लोकतंत्र खतरे में नहीं दिखाई देता.
लेकिन आज सबको देश का लोकतंत्र खतरे में दिखाई पड़ रहा है, ममता बनर्जी जैसी तानाशाह भी लोकतंत्र की दुहाई दे रही हैं. अगर मुख्य न्यायाधीश कथित दलित/पिछड़े या अल्पसंख्यक वर्ग से होते तो भी क्या ममता बनर्जी जैसे नेताओं को लोकतंत्र की इतनी ही चिंता होती? क्या तब भी इसी प्रकार से माननीय जजों के कथित आरोपों को समर्थन मिलता? शायद नहीं, तब केवल जाति/धर्म देखा जाता. दलित/अल्पसंख्यक समाज के खिलाफ अन्याय की बात की जाती. आज जो राजनेता या समाजसेवी निष्पक्ष जांच की मांग कर रहे हैं, क्या वो तब भी इतनी ही निष्पक्षता से जाँच की बात करते? मैं ये नहीं जानना चाहता कि माननीय जस्टिस जे. चेम्लेश्वर और उनके साथियों के आरोपों की जाँच होनी चाहिए या नहीं, किन्तु मैं ये अवश्य जानना चाहता हूँ कि अगर मुख्य न्यायाधीश किसी वर्ग विशेष से सम्बन्धित होते तब भी क्या मायावती, ममता बनर्जी, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, केजरीवाल जैसे नेता इसी तरह से खामोश रहते?
दोषी कोई भी हो दोषी हमेशा दोषी होता है, उसकी जाति, उसका धर्म या उसका जेंडर कोई मायने नहीं रखता. अपराधी केवल अपराधी ही होता है.
-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
शास्त्री संदेश नोट- “ये मेरे स्वयं के विचार हैं, आपका इनसे सहमत होना या न होना आवश्यक नहीं.”
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