दुनिया का सबसे बड़ा बोझ होता है बाप के कंधे पर जवान बेटे का जनाजा (अर्थी). जिस औलाद को जरा सा दुःख होने पर बाप की अंतरात्मा चीख उठती है, उसी बेटे को जब मुखाग्नि देनी पड़ती है तब देखने वालों का कलेजा भी मुहं को आ जाता है. बेटे की ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाने वाला बाप जब उसी बेटे के जनाजे को कंधे पर लेकर चलता है तब पत्थर दिल भी रो उठते हैं. बड़ी तकलीफ होती है जब उसी बेटे को कंधा देना पड़े जिसके कन्धों पर अपने बुढ़ापे का बोझ रखना होता है. एक माँ ९ महीने अपने खून से बेटे को सींचती है तब जाकर एक बीज एक पौधा बनता है और उस पौधे को एक बाप अपने मजबूत कंधों का सहारा देकर और एक माँ अपनी ममता की खाद देकर एक वृक्ष बनाते हैं, ताकि जब बुढ़ापे की धुप तेज होने लगे तब उस वृक्ष की छाया में बैठा जा सके. लेकिन जब वो वृक्ष असमय टूट जाता है और बुढ़ापे की धुप तेज हो तब उसकी लकड़ियाँ (अस्थियाँ) चुनना दुनिया का सबसे बड़ा बोझ मालूम होता है. जब बेटा रात को बिस्तर गीला कर देता है तब माँ उसके गीले बिस्तर पर सो जाती है और उसे सूखे बिस्तर पर सुला देती है, दिन-भर काम करके थकी-मंदी माँ रात को बार-बार हाथ फिराकर ये देखना नहीं भूलती कि कहीं उसका लाल गीले बिस्तर पर तो नहीं लेटा है. वो करवट भी नहीं बदलती क्योंकि उसे डर रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि उसका बेटा नींद में उसका दूध ढूंढे और वो उसको न मिले. अपने जिगर के टुकड़े को सीने से चिपकाये वो इसी आशा में सोती रहती है कि जब ये बड़ा होगा तब उसका सहारा बनेगा. एक बाप अपनी औलाद को ऊँगली पकड़कर चलना इसलिए सिखाता है क्योंकि उसे आशा होती है कि कभी ये मेरी लाठी बनकर मुझे सहारा देगा, लेकिन दिल रो उठता है जब उस बेटे की अर्थी के लिए बांस लाने पड़ते हैं. जिस बेटे को गोदी में लिया हो जब उसे चिता की अग्नि में समर्पित करना पड़े तो उस दर्द को शब्दों में बयाँ करना शायद बड़े से बड़े साहित्यकार के बस में भी नहीं हो सकता. जिसे लंगोट पहनना सिखाया हो जब उसे कफन में लपेटना पड़ता है तब आसमान भी रो उठता है. जिस बेटे के जरा सी खरोंच आने पर जो बाप परेशां हो जाता है, जब उसी बेटे की कपाल-क्रिया बाप को अपने ही हाथों से करनी पडती है तब धरती भी चीख उठती है.
औलाद न हो तो दुःख होता है, होकर मर जाये तब बहुत दुःख होता है लेकिन जब जवान औलाद अपनी आँखों के सामने दम तोड़ दे तब दुखों का पहाड़ टूट जाता है. उस दुःख को दुनिया का कोई विद्वान्,
ज्ञान ी, संत-महात्मा बर्दाश्त नहीं कर सकता.
सीमा पर अपने देश के लिए शहीद होने वाला जवान, उस शहीद जवान के माँ-बाप, भाई-बहन, उसकी पत्नी, उसके बच्चे कम से कम सांत्वना और सम्मान के दो शब्दों के तो हकदार हैं ही.
लेकिन आदरनीय ५६ इंच के सीने के तथाकथित मालिक, हिंदुस्तान के वजीरे आज़म, झोली उठाये फिरने वाले कथित फ़कीर, जनाब मोदी साहब, आपका दुर्भाग्य है कि न तो आपको औलाद की ऊँगली पकड़ने का सौभाग्य मिला और न ही अपने लख्ते जिगर को अपनी मातृभूमि पर कुर्बान करने का गौरव आपको हासिल है. एक सौ बत्तीस करोड़ हिन्दुस्तानी आपसे ये जानने का हक रखता है कि आखिर कब तक हमारे जवान यूँ ही गोलियां खाते रहेंगे, आखिर कब तक एक बाप अपने जवान बेटे की अर्थी को कंधा देता रहेगा, आखिर कब तक माओं की गोद उजडती रहेंगी, आखिर कब तक जवान बहुएं अपनी चूड़ियाँ तोडती रहेंगी, कब तक नन्हें-मासूम अनाथ होते रहेंगे और कब तक भारत माँ अपने वीर सपूतों की चिताओं को सजाती रहेगी, कब तक गंगा माँ अपनी गोद में वीर सपूतों की अस्थियाँ संजोये रखेगी, कब तक आखिर कब तक? श्रीमती इंदिरा गाँधी एक महिला थीं, लाल बहादुर शास्त्री एक बहुत छोटे से कद के नेता थे. लेकिन जनाब मोदी साहब, वजीरे आजम साहब, आप न तो महिला हैं, न आपका छोटा कद है और माशाल्लाह आपका तो सीना भी 56 इंच का है. कभी आईने के सामने खड़े होकर अपने आप से ये सवाल जरुर पूछना कि कयामत के रोज जब आपसे इन शहीदों की बेवायें और बच्चे आपसे ये पूछेंगे कि बताओ मोदीजी हमारा कसूर क्या था? तब आप किस मुहं से उनके मासूम सवालों का जवाब देंगे या फिर झोला उठाकर चल देंगे?