चलो गांव
जरा सा घूम आएं .
पत्थरों के शहर में
बेजान बन गया हूँ
उबली हुई चाय की
सिट्ठी सा छन गया हूँ
बरसों गुजर गए
फफूंद आये.
आगबबूली दोपहरी में
तन तवा सा जल रहा
नोनी लगी दीवारों में
मन कंदील सा गल रहा
चलो नीम की छांव
जरा सा झूम आएं.
छांव नदारद ठाँव नदारद
हवा उगलते नल
ना जाने हो कैसा अपना
आनेवाला कल
दादी मां के पांव
चलो चूम आएं .
चलो गांव
जरा सा घूम आएं . -- डॉ. हरेश्वर राय