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चलो गांव

21 मई 2017

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चलो गांव

जरा सा घूम आएं .


पत्थरों के शहर में

बेजान बन गया हूँ

उबली हुई चाय की

सिट्ठी सा छन गया हूँ


बरसों गुजर गए

फफूंद आये.


आगबबूली दोपहरी में

तन तवा सा जल रहा

नोनी लगी दीवारों में

मन कंदील सा गल रहा


चलो नीम की छांव

जरा सा झूम आएं.


छांव नदारद ठाँव नदारद

हवा उगलते नल

ना जाने हो कैसा अपना

आनेवाला कल


दादी मां के पांव

चलो चूम आएं .


चलो गांव

जरा सा घूम आएं . -- डॉ. हरेश्वर राय

रेणु

रेणु

यद् नहीं कृपया याद पढ़े -- गलती के लिए खेद है --

22 मई 2017

रेणु

रेणु

कहते हैं ' खग ही जाने खग की भाषा ' इसी प्रकार गांव की यादों के अनिवर्चनीय विरह को वही जान पाता है जिसने गांव के पीपल की छांव और दादी माँ के अतुलनीय ा स्नेह का आनंद लिया हो -- आपने मुझे भी मेरे गांव की यद् दिला दी -- डॉ राय बहुत अच्छी लगी आपकी रचना

22 मई 2017

नृपेंद्र कुमार शर्मा

नृपेंद्र कुमार शर्मा

बहुत अच्छी रचना , सच में गांव की याद आ गई।

21 मई 2017

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गर्मी काकी

19 मई 2017
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गली गली में, द्वार द्वार पर गर्मी काकी घूम रही है खीरा ककड़ी तरबूजे लेकर बेंच रही है झूम रही है.छाता ले लो गमछा ले लो जोर जोर से बोल रही है धूप चश्मों की भारी गठरी बांध रही है खोल रही है.पंखे कूलर नचा रही है घ

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चलो गांव

21 मई 2017
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चलो गांवजरा सा घूम आएं .पत्थरों के शहर मेंबेजान बन गया हूँउबली हुई चाय कीसिट्ठी सा छन गया हूँबरसों गुजर गएफफूंद आये.आगबबूली दोपहरी मेंतन तवा सा जल रहानोनी लगी दीवारों मेंमन कंदील सा गल रहाचलो नीम की छांवजरा स

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जुगनू हुई तनहाई

21 मई 2017
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मन ठूँठ परआस केपात आये.जेठ की गई तपनसावन की पुरवाई आईतन अगस्त्य का फूल हुआसूखे पैरों की गई बिवाईबाग़ केउड़े तोतेहाथ आये.मन पुरइन का पात बनाजुगनू हुई तनहाईहोंठ फाग केगीत हुएआँखें हुईंअमराईहासपरिहास केपरात आये.-

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पियराये से गीत

21 मई 2017
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सूनी डगरेंप्यासे खेतपियराये से गीतफ़ुर्र हुईगौरैया चिरईंभूख न जाने रीत.बेटा बाम्बेदिल्ली बिटियाअपने संगचितकबरी बछिया चलनी छानीदरकी भीत. बिरहा

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नेह भरी पाती

21 मई 2017
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नेह भरीपाती अब नहीं आती. गुप्तवास में माँ की लोरीगूंगी बहरी चैती होरी सुखिया दादी परातीअब नहीं गाती अंगनाई की फट गई छातीचूल्हे चौकों कीबँट गई माटीपूर्वजों कीथाती अब

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हर कदम प्यास है

22 मई 2017
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सूखी नदी सा मन उदास है .सदी - साआकाशबादल बिन नंगा है यमुनापियराई - सी मैली - सी गंगा है आँखों मेंपतझड़ हैराहों मेंधूल हैबागों में बच गएबेर और बबूल हैं. हर घाट बदहवास है .--- डॉ. हरेश्वर राय

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