दो-तीन दिन पहले मैं जलियांवाला बाग़ गया था, हम सबके लिए वह शोक की भूमि है, वहाँ के बारे में अधिक लिखना नहीं चाहता पर एक बात का ज़िक्र करना चाहता हूँ। जलियांवाला बाग़ में फायरिंग के दौरान बहुत से लोग गोलियों से बचने के लिए वहाँ स्थित एक कुंए में कूद गए थे, सरकारी आंकड़ों के अनुसार कुंए से 120 शव निकाले गए थे, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। वह कुंआ शहीद कुँआ कहलाता है। उस शहीद कुँए की चारों ओर फेंसिंग की गई है, परन्तु नीचे झाँक सकते हैं, नीचे झाँकने पर तारे से चमचमाते दीखते हैं। असल में लोग कुँए में सिक्के और नोट आदि डाल जाते हैं। कुँए में हज़ारों सिक्के व नोट थे, जिनमें 100-500 के नोट भी थे। वह कुँआ काफी गहरा है और मैं नहीं समझता कभी भी उस स्थाई फेंसिंग को हटाकर कुँए से यह राशि निकाली जाएगी, फिर क्यों लोग यह सब कुँए में फेंकते हैं। मेरे दोस्तों ने भी यह पूछा और इसे बेतुका बताया, पर मुझे कुछ और दिख रहा था, मैंने इतना ही कहा, हर बात का मतलब निकालने का कोई मतलब नहीं है, लोगों ने यह जो सिक्के डाले हैं, सुखद बात है, सबको पता है कि इन पैसों का कुछ नहीं होना फिर भी लोग डालते हैं, वह केवल भावना के कारण, कुछ त्याग, कुछ उत्सर्ग करने की भावना के कारण, कुछ सम्मान, कुछ श्रद्धा, कुछ देशप्रेम, कुछ कृतज्ञता की भावना के कारण, २-५ रुपए में न कोई अमीर होता है न गरीब, मन की संतुष्टि महत्वपूर्ण है। आज दुनिया मतलब से चलती है, सबको हर चीज का मतलब चाहिए, कितने की उदाहरण दे सकता हूँ, जहाँ मतलबी लोग मतलब नहीं देखते, दारु-सुट्टा-अय्याशी पर गड्डियाँ लुटाना मॉडर्निज़्म है, पर सात्विक भावनाओं की हर प्रवृत्ति पर उन्हें मतलब देखना होता है। सिक्के डालना कोई देशभक्ति आदि का पैमाना नहीं है न ही यह अनिवार्य है पर कोई अपनी श्रद्धा से कुछ करे, तुम्हारी जेब से क्या जाता है। खैर, हम लोगों ने भी एक एक सिक्का डाला, अच्छा लगा!