दहेज की बलि वेदी..
प्रेम सहित भेंट स्वरूप बेटियों को दी जाने वाली वस्तुओं को समाज ने कब दहेज बना दिया ये शायद कोई भी नहीं जानता...?
किसे जिम्मेदार माने..? कुछ माता-पिता शायद जिनकी बेटी में कुछ कमी हो...! उन्होंने वर पक्ष को लालची बना दिया ... और ये प्रेम वाली भेंट कुप्रथा बन गई! जिसने बेटियों के लिए अभिशाप का रूप ले लिया...!अब के दशक में तो फिर भी दहेज वाले मामले कम है परन्तु 80,90के दशक के समय दहेज प्रथा जोरों पर रही.. दहेज लोभियों ने अति ढायी थी। शांत सुशील लड़कियों का जीना दुश्वार हो चुका था। कितने घर टूटे ... कितनी हत्याएं..आज भी समाचार पत्रों की खबरों को याद कर मन सिहर उठता है।
शिक्षाऔर जागरूकता से एक लंबे संघर्ष के बाद दहेज की बलि चढ़ जाने वाली खबरों में कमी आई है लेकिन ये पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है... सिर्फ किताबी और स्कूली शिक्षा ही नहीं नैतिक शिक्षा की बहुत अधिक आवश्यकता है तब ही दहेज व अन्य प्रकार के अत्याचारों से मुक्ति मिल सकती है जितनी जागरूकता युवतियों को जरूरी है उतनी ही नैतिक शिक्षा व संस्कार की युवाआें को भी जरुरी है इस सत्य को स्वीकारने की आवश्यकता है कि स्त्री पुरुष समानता के अधिकारी हैं एक दूसरे के पूरक हैं प्रेम व सम्मान एक दूजे के प्रति परस्पर रहेगा तो बहुत सारी कुप्रथाएं समाज से आप ही किनारा कर लेंगी... और तब होगी एक सुंदर व स्वस्थ मानसिकता वाले समाज की स्थापना जो देश को गौरव की अनन्त ऊंचाईयों की ओर ले जाएगा।
स्वरचित मौलिक बलजीत कौर 'सब्र' रायपुर छत्तीसगढ़