डर के आगे…
एक शीतल पेय के विज्ञापन की आख़िरी पंक्ति से बात शुरू करते हैं,डर के आगे......जीत है.विज्ञापन में तो अतिशयोक्तिपूर्ण
दावा किया गया है.परंतु क्या ये मुमकिन है?यदि हाँ,तो कैसे?संस्कृत का एक श्लोक हमारा मार्गदर्शन कर सकता है-तावद्
भयस्य भेतव्यं,यावद् भयमनागतम | आगतं तु
भयं वीक्ष्य,प्रातिकुर्याद यथोचितं|| अर्थात्
भय(चाहे जिस बात का हो), जब तक अप्रकट है,तब तक आप केवल उस घटना के घटित होने पर
जो शारीरिक,मानसिक,या आर्थिक नुकसान की संभावना है,उससे भयभीत हो सकते हैं.यह डर भविष्य में होने वाले नुकसान,पीड़ा की
कल्पना पर आधारित है.भय का कारण प्रकट होने पर उसका प्रतिकार आवश्यक है.सामान्य
मानव के जीवन में सबसे अधिक डर किसका है? विफ़लता का.परीक्षार्थी परिणाम की चिंता में परीक्षा से पूर्व से ही भयभीत
रहता है.दिन-रात विफ़ल हो जाने का डर उसे सताता है.क्या ही अच्छा हो,यदि वह पाठ्यक्रम का अभ्यास करे,परिणाम तो उसके अध्ययन
पर,विषय को ग्रहण करने की उसकी क्षमता पर आधार रखेगी.
यदि कोई उद्यमी या व्यापारी विफ़लता की कल्पना से भयभीत होकर नया उद्यम प्रारंभ
ही नहीँ करे तो क्या होगा? अभिनव विचारों
को मूर्त रूप देने हेतु शुरू होने वाले स्टार्टअप का श्रीगणेश विफ़लता के डर की
छाती पर आशा के क़दम रखकर ही किया जाता है.साल 1981 में 250 डॉलर के आरंभिक पूंजी
से इन्फोसिस कंसलटेंट्स प्राईवेट लिमिटेड नामक कम्पनी बनाने वाले
एन.आर.नारायणमूर्ति,नंदन नीलेकणि,एस. गोपालकृष्णन,एस.डी.शिबूलाल,के.दिनेश,एन.एस.राघवन और अशोक अरोरा जैसे सात इंजीनियर यदि इसे
विफ़लता के काल्पनिक डर से प्रारंभ ही नहीं करते तो भारत एक भारतीय बहुराष्ट्रीय
कम्पनी के गौरव से चूक जाता.धीरुभाई अम्बानी के संघर्ष और सफ़लता की गाथा किसे
प्रेरित नहीं करती?विफ़लता तो
प्रयास का एक क़दम है जो हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता
है.कोई भी नया आविष्कार एक प्रयास में नहीं हो जाता.
साल 2001 से 2006 के बीच एनबीसी द्वारा प्रथम प्रसारित गेम शो फियर फैक्टर का
भी विषय-वस्तु (थीम) वही था -डर के आगे जीत का.जो मृत्यु के खतरे से बिना डरे न्यूनतम
समय में करतब (स्टंट) कर दिखाये वही विजेता.मृत्यु के भय को पीछे छोड़ चक्रव्यूह को
भेदने वाले अभिमन्यु ने पांडवों का मस्तक गौरव से उन्नत किया और वीरगति पाकर स्वयं
अमर हो गया.कठोपनिषद में एक कथा के पात्र नचिकेता ने अपने पिता बाजश्रवस अर्थात्
आरुणि उद्दालक गौतम को यज्ञ के उपरान्त ब्राह्मणों को दक्षिणा में बूढ़ी गायें देते
देखकर जिज्ञासावश जानना चाहा कि वे बीमार,बूढ़ी गौओं का दान क्यों कर रहे हैं जो
उनके किसी काम की नहीं हैं,तो पिता ने उसके प्रश्न को टालना चाहा.परन्तु बालक अपने
प्रश्न पर दृढ रहा-पिताजी,लोग तो दान में
अपनी सबसे प्रिय वस्तु देते हैं और आपको सबसे प्रिय मैं हूँ तो आप मुझे किसे दान
में देते हैं ?झूंझलाहट में ऋषि के मुख से निकल गया- जाओ,मैं तुम्हें मृत्यु को
देता हूँ.बालक नचिकेता ने मृत्यु से बिना डरे शांतिपूर्वक पिता से कहा-पिताजी, आप प्रसन्न हों,आपकी आज्ञा से मैं स्वयं मृत्यु के देवता के पास जाता हूँ.ऋषि बाजश्रवस को
अपनी भूल का ज्ञान हुआ.परंतु अब क्या हो सकता था ? पिता के वचन का पालन करने
नचिकेता मृत्यु के देवता यमराज के द्वार पर पहुंचा.यमराज चकित थे.मृत्यु,जिस शब्द
से सारा भूलोक आक्रान्त था उससे वह बालक तनिक भी नहीं डरा था.यमराज से आत्म विद्या
का ज्ञान लेकर वह वापस लौटा.सावित्री भी यमराज से अपने प्रियतम का प्राण लेकर ही
वापस लौटी थी.
सामाजिक बहिष्कार के डर से कई कुरीतियों को पीढी दर पीढी पालन करने के लिये
लोग विवश थे.राजा राम मोहन रॉय और स्वामी दयानंद सरस्वती सरीखे समाज सुधार के नायकों
ने इस डर को चुनौती दी और समाज को घोर अंधकार से प्रकाश की और लाने में सफल हुए.
अंतर्मुखी स्वभाव वाले लोग उपहास के डर से अनजान लोगों के बीच ही नहीं बल्कि
मित्रों के बीच भी खुले सम्भाषण से परहेज करते हैं.परन्तु जब उनका आधारभूत ज्ञान
लोगों को अभिभूत कर देता है तो यह झिझक मिट जाती है.
अनीश्वरवादियों का मानना है कि वस्तुतः डर ही धर्म का आधार है.परन्तु हम तो
ईश्वर के बालक हैं,हमें उनसे कैसा
डर.डरने और डराने वाले अंततः हारते ही हैं.
प्रतिस्पर्धा में विजेता तो कोई एक ही होगा.हार के डर से क्या उसमें भाग न लें? खेलों में हार-जीत अधिक महत्त्व नहीं रखता है.’’जब कभी
स्कोरर आता है लिखने आपका नाम,वह नहीं लिखता
आप हारे है या जीते हैं,सिर्फ लिखता है आपने खेलों में क्या किया काम’’.