सौराष्ट्र गौरव:लोक गायक हेमु गढ़वी
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दिसंबर 2007 का वह अविस्मरणीय दिवस था.ग्यारहवीं अंतर विभागीय राजभाषा समिति
द्वारा आयोजित राजभाषा प्रतियोगिता-2007 में
‘अनुवाद’ के लिये ‘प्रथम’ व ‘भाषा-शुद्धि’ हेतु ‘द्वितीय’ पुरस्कार के लिये मुझे चुना गया था. नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति राजकोट द्वारा
आयोजित इस कार्यक्रम की मेजबानी रेलवे मण्डल कार्यालय,राजकोट की थी.
केंद्रीय सरकार के कार्यालयों/उपक्रमों/बैंकों यथा आकाशवाणी राजकोट,भारत संचार निगम लिमिटेड ,भारतीय जीवन बीमा निगम,दूरदर्शन केंद्र राजकोट,आयकर विभाग व अन्य कई विभाग के इसमें प्रतिभागी थे.रेलवे की ओर से मेरे साथ सांख्यिकीय निरीक्षक नौरंगलाल जी थे.समारोह स्थल था-‘हेमु गढ़वी नाट्य गृह’.टैगोर रोड पर विराणी उच्च विद्यालय के निकट यह शानदार प्रेक्षागृह अवस्थित है.इसका निर्माण राजकोट नगर निगम
द्वारा किया गया है तथा 11 अगस्त 1998 को ‘हेमु गढ़वी हॉल’ के नाम
से इसे लोकार्पित किया गया.न जाने क्यों,’हेमु गढ़वी’नाम स्मृति-पटल
पर उस दिन अंकित हो गया.वर्ष 2013 में आयी चलचित्र ‘रामलीला’ ने पुनः इस महान विभूति की यादें ताज़ा कर दी.आख़िर
कौन थे हेमु गढ़वी?आईये,उनके बारे में जानने की कोशिश
करते हैं.
गुजरात के सौराष्ट्र का एक ज़िला है,सुरेंद्रनगर.इसी ज़िले के सायला तालुका में ढाकनिया नामक गाँव में 04 सितम्बर 1929 को नानभा व बालुबा
दंपत्ति को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. बालक का नाम रखा गया हेमु.यह नाम मुगलकालीन ‘हेमु’ अर्थात हेमचन्द्र विक्रमादित्य की याद दिलाता है जिसने अपनी वीरता से मुग़ल शासक अकबर और उसके संरक्षक बैरम खान की नींद हराम कर दी थी.बालक लोकगीतों व भजनों में आरंभ से ही रूचि लेने लगा.14 वर्ष की छोटी उम्र से ही शक्ति प्रभाव कलामंदिर से उनका जुड़ाव हो गया.प्रथम नाटक ‘मुरलीधर’ में कृष्ण की भूमिका की भरपूर सराहना हुई.दर्शक दीर्घा तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठी.लोगों ने मन्त्र-मुग्ध होकर पूरा नाटक देखा.इसी नाटक में उन्हौंने प्रथम गीत गया-मुझे गोकुल गाँव
प्रिय
है.जामनगर में ‘रणकदेवी’ नामक एक नाटक में स्त्री
पात्र का अभिनय किया. ‘रणकदेवी’ नाम से बने एक फिल्म के तत्कालीन बम्बई के
निर्माता उनसे काफ़ी प्रभावित हुए जो उस दौरान उपस्थित थे.उन्हौंने
उनका हौसला बढ़ाया.धीरे-धीरे कला के प्रति उनका प्रेम बढ़ता ही गया.वे वर्ष 1955 तक
वांकानेर और राजकोट की चैतन्य नाटक कंपनी में काम करते रहे.इस दौरान वे चारण
साहित्य का अभ्यास करते रहे तथा नाटकों में यथास्थान इसका उपयोग करते थे.लोकगीत
गायन में भी चारण साहित्य की बड़ी भूमिका रही.
आकाशवाणी राजकोट के गीजूभाई व्यास तथा चंद्रकांत भाई
भट्ट ने कई नाटकों में उन्हें निकट से देखा और काफ़ी प्रभावित हुए तथा उनसे
आकाशवाणी से जुड़ने का आग्रह किया .हेमुभाई ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और
आकाशवाणी राजकोट से वर्ष 1955 में तानपुरा कलाकार
के रूप में जुड़ गये.यहाँ उनकी
प्रतिभा को निखरने का अवसर मिला.इस दौरान उन्हौंने झवेरचंद मेघाणी व दुला भाया काग
के साहित्य का अध्ययन किया और लोक संगीत के माध्यम से इसे घर-घर तक पहुँचाया.वर्ष
1965 तक आकाशवाणी राजकोट को उन्हौंने अपनी सेवायें दी.वर्ष 1962-63 में कोलंबिया
की कंपनी ने 78 स्पीक की रिकार्डिंग जारी
की.इसका शीर्षक था- "સોની હલામણ મે ઉજળી".इसके
अतिरिक्त एचएमवी द्वारा भी कई रिकार्डिंग जारी की गयी जिनमे શિવાજીનું હાલરડું, અમે મહિયારા રે और મોરબીની વાણિયણ आज भी लोगों के मानसपटल पर छाये हुए हैं. उन्हौंने
सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र तथा पृथ्वीराज चौहान जैसे नाटकों में भी यादगार भूमिकाएं
निभाई.
लोकगीतों के गायन और उन्नति में उनके योगदान को मान देने के लिये गुजरात सरकार द्वारा श्रेष्ठ लोकगायक का गौरव पुरस्कार दिया गया. ‘કસુંબીનો રંગ’ नामक गुजराती चलचित्र के लिये उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायक का पुरस्कार मिला.भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हाथों लोकसंगीत पुरस्कार मिला.राजकोट शहर ने एक सड़क को इस महान कलाकार के नाम पर ‘हेमु गढ़वी मार्ग’ नाम देकर स्वयं को गौरवान्वित किया.
”हेमु गढ़वी नाट्यगृह” की
ऊपर चर्चा की जा चुकी है.
इनके द्वारा गाये लोकगीतों में ‘मन मोर बनी थनगाट करे’
काफ़ी प्रसिद्ध है.इसे आधार बनाकर ही फिल्म निर्देशक संजय लीला भानुशाली ने अपनी
फ़िल्म ‘रामलीला’ में एक नृत्य-गीत की रचना की थी जो काफ़ी लोकप्रिय
हुआ.आज इनके लोकगीतों का विशाल संकलन आई-ट्यून,यूट्यूब,व अन्य प्लेटफ़ॉर्म
पर उपलब्ध है.लोक डायरों की शोभा हैं ये लोकगीत.
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अगस्त 1965 को आकशवाणी केंद्र पड़धरी में रिकार्डिंग के दौरान ही दिमाग में शोणितश्राव
होने के कारण उन्हें चक्कर आने लगा और उनकी तबियत बिगड़ गई.आनन-फानन उन्हें राजकोट
के अस्पताल में भर्ती कराया गया परंतु 36 वर्ष की अल्पायु में ही लोक संगीत का यह
चितेरा अपनी भार्या हरि बा व पुत्र बिहारीदान हेमु गढ़वी के साथ गुजरात के लोक
संगीत के चाहकों को रोता छोड़कर चला गया.ईश्वर अपने प्यारों को इतनी जल्दी अपने पास
क्यों बुला लेते हैं ? स्वामी विवेकानंद हों या आचार्य शंकर,अल्पायु में ही उन्हौंने वह कर दिया जो कल्पना से
परे था.सातवीं सदी में जब सनातन धर्म को तत्कालीन समाज ने कुरीतियों से कलुषित कर
दिया था,आचार्य शंकर ने उसकी पुनर्स्थापना की
और भारत के चार कोणों में शारदापीठ की स्थापना की.आधुनिक काल के योगी नरेंद्रनाथ
ने अमेरिका के धर्म संसद में उसी का पुनः उद्घोष किया और स्वामी विवेकानंद हो
गये.ठीक इसी तरह हेमु भाई गढ़वी ने झवेरचंद मेघाणी,दुला भाया काग के साहित्य को
लोकगीतों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाकर लोक कलाकार के रूप में अपना नाम अमर कर
दिया.
लोक
कला के संरक्षकों ने वर्ष 2017 में उनके पैतृक गाँव ढाकनिया में “हेम-तीर्थ” नाम से एक
स्मारक का लोकार्पण किया है जो कला के चाहकों के लिये एक पर्यटन स्थल के रूप में
विकसित हो सकता है.उनका जीवन विश्वविद्यालयों में कला के स्नातकों के लिये शोध का
विषय हो सकता है.
(इंटरनेट
से प्राप्त जानकारी पर आधारित)