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डियर जिन्दगी...

22 अक्टूबर 2021

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हैलो
डियर जिन्दगी, अभी भी व्यस्तता बहुत ज्यादा है। मन की भी और जीवन की भी। कल मैं मन
से या दिमाग से कहिए इतनी व्यस्त थी कि रात में ही आँखें बन्द थीं और मैं बहुत कुछ
सोच रही थी और फिर सवेरे उठ गई। आज मन का आलम कुछ मिला-जुला है। मैं खुश हूँ इस
बात से कि जल्दी ही मुझे यहाँ से जाना होगा वो भी हमेशा के लिए यानी ट्रांसफर और
दूसरी चीज इस इतवार होगा कुछ विशेष, हो भी क्यों न मैं अपनी सासु माँ से और अपनी
ननंद से मिलने वाली हूँ और मेरा पहला करवाचौथ उनके सानिध्य में होने वाला है। दिल
थोड़ा-थोड़ा डर भी रहा है कि मुझसे कहीं कोई छोटी सी भी गलती न हो और मैं अपनी ओर
से सारा काम मेहनत से करूं और उदास इस बात से कि अब मुझे जल्द ही अपना रायबरेली का
आशियाना छोड़कर जाना है। खैर, चलो अब आज का टाइटिल जो कि मूर्ति विसर्जन का है।  

 होता हमेशा यूं है कि हम सभी नौ दिन की नवरात्रि या पहला और आखिरी दिन का व्रत रखते हैं और दशहरे वाले दिन माँ दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। जो मूर्ति बैठाता है वह बहुत सारी मेहनत करता
है, दिन-रात देख-रेख करता है और अन्त में विसर्जित करता है। मेरा मतलब कहीं से भी
मूर्ति पूजा का विरोध करना नहीं है, लेकिन जैसा विसर्जन के समय अक्सर लोग तेज
ध्वनि में गाना बजाते हैं, नाचते हैं और यहाँ तक कि कई जगह तो इसके कारण विवाद और
दुर्घटनाएं भी होती हैं। मैं इस बार दुर्गा पूजा वाले दिन यूं ही अपने पतिदेव के
साथ घर से बाहर गई थी घूमने, लेकिन मुझे इतनी भीड़ नहीं अच्छी लगती। मैंने जो
स्वयं अनुभव किया उसमें अधिकतर लोग जो विसर्जन में शामिल थे, विशेषकर पुरूष वह तेज
ध्वनि वाले गानों पर झूम रहे थे और वो गाने न ही भक्ति संगीत के लग रहे थे और न ही
मनोरंजन के, क्योंकि उसमें शोर बहुत ज्यादा था और शब्द कम। मैंने जो महसूस किया
उसमें कुछ लोगों ने शराब पी रखी थी और उन्हें खुद नहीं होश था कि वह क्या कर रहे
हैं। नवरात्रि के नौ दिन बहुत पावन होते हैं, हम नारी शक्ति माँ दुर्गा के आगमन की
खुशी मनाते हैं और उपासना करते हैं, लेकिन विसर्जन के दिन इस तरह उनके जाने पर
खुशी मनाना और नाचना मुझे समझ नहीं आता और वो भी इस तरह। 

 मुझे लगता है अगर यह उपासना सच्चे अर्थों में फलित करनी है तो हम सभी अपने माँ के ही बच्चे हैं और वह भी नारी शक्ति का प्रतिरूप हैं तो क्यों न एक उपासना उनके नाम से की जाए और उन्हें यह बताया जाए
कि आप कितनी विशेष हो हमारे लिए। क्योंकि माँ की कोई परिभाषा हम गढ़ नहीं सकते और उनकी
दया की सीमा को बांध नहीं सकते तो अगर मूर्तिरूप पूजने के साथ ही माँ के मूर्तरूप
यानी अपनी माता का वन्दन किया जाए तो क्या गलत होगा।  

(आप सभी पाठकों से अनुरोध है मेरे विचार को पढ़कर कृपया कमेंट अवश्य करें और अपने
विचार से अवगत कराएं।)  

ओमकारिणी 

   

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