गुरू नानक साहिब के जीवन को हम देखेंगे, जिस पर अक्सर लोगों ने ध्यान नहीं दिया है। भारत में अनेकों महापुरूष हुए हैं जिन्होंने अलग-अलग समयकाल में उस समय की परिस्थितियों के अनुसार अनेकों बड़े और महान कार्य किये हैं। उनमें से गुरू नानक साहिब जी भी एक थे, जिनका जन्म ऐसे समय काल में हुआ, जब भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं का कहर चरम सीमा पर था। मुगल साम्राज्य की स्थापना काल का समय भी यही था, जब बाबर ने भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। इस बड़े कत्लेआम और इस्लाम का इन राजाओं द्वारा भारतीयों के ऊपर थोपा जाना, उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करना यह सब आम हो चुका था। जहां एक ओर विदेशी आक्रांताओं का कहर जारी था वहीं दूसरी और हिंदू धर्म में अंधविश्वास, पाखण्ड, मूर्तिपूजा, अशिक्षा, जातिपाति एवं वर्णभेद के कारण आमजन अत्यन्त ही बुरी स्थिति में थे। एक और आम जनता पर राजा की मार थी और वहीं दूसरी ओर पंडित-पुजारियों द्वारा धर्म के नाम पर लोगों से लूट-खसूट अपनी चरम सीमा पर थी। एक ऐसे युग की कल्पना करना भी कितना भयानक होगा, जब लोग अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए किसी की जान लेने से भी न चूकते थे क्योंकि राजाओं के समय में राजाओं के चाटूकारों के लिए कोई नियम कानून न थे। राजा के द्वारा बोला गया प्रत्येक शब्द ही कानून और धर्म था। चारो और भय, अराजकता और धार्मिक अंधविश्वास का माहौल व्याप्त था। आम जन इन सभी प्रताड़नाओं को झेलते-झेलते इतने कायर हो चुके थे कि उनका जीवन मात्र पशुवत ही था। ऐसी स्थितियों में बाबा नानक का जन्म हुआ। जिन्होंने अपने जीवन में इन परिस्थितियों से लोगों को बाहर निकलना सिखाया।
धार्मिंक जगत में आज यह सबसे बड़ा दुखांत है कि हमने अपने महापुरूषों के जीवन से कुछ सीखने के बजाय उन्हें इतना बड़ा बना दिया है कि हम उनकी ही पूजा अर्चना करने लग गये। जिसका नतीजा यह हुआ कि उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं को हमने एक ओर रखकर अपने मन मुताबिक वही सब कार्य करने लग गये, जिनकी अक्सर उन्हीं संत महात्माओं ने अपने जीवन भर विरोधता की। यदि हमें वास्तव में गुरू नानक साहिब के जीवन और आदर्शों को समझना है तो हमें गुरू नानक से लेकर गुरू गोबिन्द सिंह जी तक के सभी गुरूओं के जीवन और उनके मूल्यों को आधार मानकर एक पूर्ण आदर्शों को समझना होगा क्योंकि गुरू नानक साहिब जी ने अपने जीवनकाल में जो उपदेश दिये और जो उनके विचार थे, वह सब एक जीवन में पूर्ण कर पाना संभव नहीं था। उनके बाद में आये बाकी के नौ गुरूओं ने अपने जीवनकाल में जो भी कार्य और उपदेश दिये, उन सबकों हम गुरू नानक के ही उपदेश और कार्य मान सकते हैं क्योंकि बाकी के नौ गुरूओं ने जो भी कार्य किये वह सब गुरू नानक साहिब के आदर्शों से अलग न थे। यहां हम दस गुरूओं के कार्य का वर्गीकरण कर रहे हैं कि किस प्रकार उन्होंने अपने जीवनकाल में गुरू नानक साहिब के आदर्षों को आगे बढ़ाया।
गुरु नानक देव जी (1469-1539)सिख गुरु, गुरु नानक साहिब जी सिख धर्म के संस्थापक थे और मानव सिख गुरुओं में से पहले थे। उनका जन्म 1469 में एक ऐसे स्थान पर हुआ था जिसे अब पाकिस्तान में ननकाना साहिब कहा जाता है।उन्होंने हिंदू या मुस्लिम होने का दावा नहीं किया, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो ईश्वर और सत्य में विश्वास करता था। उन्होंने लोगों को यह भी उपदेश दिया कि हिंदू, मुसलमान और ईश्वर को मानने वाले सभी लोग समान हैं।गुरु नानक ने धार्मिक अनुष्ठानों, तीर्थयात्राओं और जाति व्यवस्था के खिलाफ बोलते हुए पूरे भारत और मध्य पूर्व की यात्रा की। जाति व्यवस्था यह थी कि कैसे समाज को धन के आधार पर विभिन्न समूहों में विभाजित किया गया या लोगों ने नौकरी के रूप में क्या किया। उन्होंने कई अलग-अलग लोगों से बात की, मुसलमानों और हिंदुओं से लेकर बौद्धों और जैनियों तक। जब उसने लोगों से बात की, तो उसने उन्हें कभी भी उसका अनुसरण करने के लिए नहीं कहा, इसके बजाय, उसने उनसे कहा कि वे अपने विश्वासों के प्रति सच्चे रहें और अपने परमेश्वर में विश्वास करते रहें।
गुरु अंगद देव जी (1504-1552)गुरु अंगद सिख गुरुओं में दूसरे थे और उनका जन्म 1504 में हुआ था। उन्होंने गुरुमुखी का निर्माण किया, जो पंजाबी भाषा का लिखित रूप है और जीवन भर कई सिखों को यह सिखाया। जल्द ही, यह लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध हो गया।शिक्षा में दृढ़ विश्वास रखने वाले, सिख गुरु अंगद ने बच्चों के लिए कई स्कूलों की स्थापना की और लोगों की पढ़ने और लिखने की क्षमता में सुधार करने में मदद की। उन्होंने मल्ल अखाड़े की परंपरा भी शुरू की – जो शारीरिक और आध्यात्मिक व्यायाम का एक रूप था।
गुरु अमर दास जी (1479-1574)सिख गुरु, गुरु अमर दास का जन्म 1479 में हुआ था और उन्होंने जातिगत पूर्वाग्रह के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। वह चाहते थे कि समाज में हर कोई समान हो और यह नहीं सोचता कि कोई अमीर या गरीब है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।उन्होंने गुरु नानक के मुफ्त रसोई के विचार पर भी निर्माण किया, जो एक ऐसा विचार था जिसमें कहा गया था कि सभी अनुयायियों को एक ही स्थान पर एक साथ भोजन करना चाहिए, चाहे वे कितने भी अमीर या गरीब हों या वे कहाँ से आए हों। गुरु अमर दास इसमें काफी सफल रहे और लोगों के लिए और अधिक समानता पैदा करने में कामयाब रहे।उन्होंने आनंद कारज का भी परिचय दिया – जो एक विशेष प्रकार का विवाह समारोह था और कुछ नए रीति-रिवाजों का निर्माण किया, जिसका अर्थ था कि महिलाओं को अधिक स्वतंत्रता और समानता थी।
गुरु राम दास जी (1534-1581)गुरु राम दास सिख गुरुओं में चौथे थे और उनका जन्म 1534 में हुआ था। उन्होंने उत्तर पश्चिम भारत में अमृतसर शहर की स्थापना की, जो अब सिखों के लिए पवित्र शहर है और स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी शुरू किया। यह सिखों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह किसी के भी आने-जाने के लिए खुला है – साल का हर दिन। यह कोरोना वायरस महामारी में भी खुला रहा।
गुरु अर्जन देव जी (1563-1606)गुरु अर्जन का जन्म 1563 में हुआ था। एक महान विद्वान, गुरु अर्जन ने सिखों के ग्रंथों को संकलित किया, जिन्हें आदि ग्रंथ के रूप में जाना जाता है। उन्होंने अधिक से अधिक लोगों को शास्त्र सिखाने की कोशिश की, इसलिए इसे मुस्लिम संतों के बारे में भी भजनों में शामिल किया।उन्होंने अमृतसर में स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी पूरा किया जिसे गुरु राम दास ने शुरू किया था। उन्होंने चार विपरीत दिशाओं में चार दरवाजों के साथ इसका निर्माण किया, यह दिखाने के लिए कि उन्होंने मंदिर में कहीं से भी और किसी भी पृष्ठभूमि से लोगों का स्वागत किया।गुरु अर्जन को सम्राट द्वारा निष्पादित करने का आदेश दिया गया था। ऐसा इसलिए था क्योंकि सम्राट मुस्लिम थे, और उनका मानना था कि गुरु अर्जन को सिख पवित्र पुस्तक में इस्लामी संदर्भ शामिल नहीं करना चाहिए।
गुरु हरगोबिंद साहिब जी (1595-1644)गुरु हरगोबिंद साहिब जी का जन्म 1595 में हुआ था और वह गुरु अर्जन के पुत्र थे। “संत सिपाही” के रूप में जाने जाने वाले, गुरु हरगोबिंद सिख गुरुओं में से पहले थे जिन्होंने लोगों को सिखाया कि कभी-कभी विश्वास की रक्षा के लिए हथियार उठाना और युद्ध में जाना आवश्यक था। ऐसा इसलिए था क्योंकि उनका मानना था कि कोई भी हिंसा वास्तव में अन्य बुराइयों को आने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकती है। उनका यह भी मानना था कि यह एक ऐसा तरीका है जिससे लोग कमजोर और जरूरतमंदों की रक्षा कर सकते हैं, इसलिए उन्होंने एक छोटी सेना का आयोजन किया।
गुरु हर राय जी (1630-1661)गुरु हर राय का जन्म 1630 ई. में हुआ था और वे बहुत ही शांत स्वभाव के थे। उन्होंने गुरु नानक की शिक्षाओं को फैलाने और मिशनरी कार्य करने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। इसका मतलब है कि उन्होंने अन्य सिख गुरुओं और सिख धर्म के संदेशों को फैलाने के लिए यात्रा की। उन्होंने बहुत ध्यान भी किया और लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया।हालाँकि यह एक बहुत ही शांत व्यक्ति थे, उन्होंने अपने दादा – गुरु हरगोबिंद – द्वारा बनाई गई सेना को समाप्त नहीं किया। इसके बजाय, इन्होंने खुद को इससे शारीरिक रूप से दूर कर लिया और साम्राज्य के साथ संघर्षों को हल करने के लिए कभी भी इसका इस्तेमाल नहीं किया।
गुरु हर कृष्ण जी (1656-1664)गुरु हर कृष्ण का जन्म 1656 में हुआ था और पांच साल बाद ही गुरु के रूप में स्थापित हुए। वह सभी सिख गुरुओं में सबसे छोटे थे।गुरु हर कृष्ण एक मानवतावादी थे, जिसका अर्थ था कि उनका मुख्य उद्देश्य लोगों की मदद करना था। अपने छोटे से जीवन के दौरान, उन्होंने मुख्य रूप से दिल्ली में उन लोगों को ठीक करने में मदद की जो चेचक की महामारी से पीड़ित थे। उसने बहुत से लोगों की मदद की, चाहे वे कहीं से भी आए हों या उनका धर्म कोई भी हो।दुख की बात है कि गुरु हर कृष्ण ने उन्हें लोगों की मदद करने के लिए जीवन दिया, क्योंकि उन्होंने जल्द ही चेचक के रोग के कारण आठ साल की उम्र से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई।
गुरु तेग बहादुर जी (1621-1675)गुरु तेग बहादुर का जन्म 1621 में हुआ था। उनका दृढ़ विश्वास था कि लोगों को अनुमति दी जानी चाहिए और उन्हें जो भी धर्म चाहिए, उसकी पूजा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इस कारण से, उन्होंने हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए मजबूर करने से बचाने के लिए हिंदू धर्म का बचाव किया। उन्होंने इस्लाम में परिवर्तित होने से भी इनकार कर दिया और परिणामस्वरूप उन्हें शहीद कर दिया गया।
गुरु गोबिंद सिंह जी (1666-1708)10 वें सिख गुरु का नाम गुरु गोबिंद सिंह मानव सिख गुरुओं में से अंतिम थे। उनका जन्म 1666 में हुआ था और वह गुरु तेग बहादुर के पुत्र थे।उन्होंने खालसा का परिचय दिया। 1708 में अपनी मृत्यु से ठीक पहले, उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब – सिख ग्रंथ – को भविष्य के गुरु के रूप में घोषित किया।यही कारण है कि गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म के लोगों के लिए बहुत मायने रखता है। वे इसे एक पवित्र पुस्तक से अधिक देखते हैं, लेकिन एक अन्य मार्गदर्शक के रूप में जिसका वे उसी तरह सम्मान करते हैं, और एक शिक्षक उन्हें दिखाते हैं कि कैसे अपने जीवन को पूरी तरह से जीना है। गुरु ग्रंथ साहिब को अक्सर 11 वें सिख गुरु के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
सिख धर्म के सभी गुरू हिन्दू धर्म से सम्बन्ध रखते थे किन्तु सिख धर्म की विचारधारा कुछ तो इस्लामिक विचारों से मेल खाती थी और कुछ हिन्दू मतानुसार समान थी अर्थात यूं कहें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के विचारों का इस धर्म में समावेष था। जहां इस्लाम से एकेष्वरवाद, मूर्ति पूजा का खंडन, ऊंच-नीच का ना होना, स्त्रियों के विषेषाधिकार और समाजिक एकता की समानता थी तो वहीं दूसरी ओर हिन्दू धर्म से पुर्नजन्म का सिद्धान्त, कर्मवाद और देवी-देवताओं के अस्तित्व की स्वीकृति भी इस धर्म में देखने को मिलती है।
इस प्रकार यदि ध्यानपूर्वक समझा जाये तो इसे वास्तव में एक नवीन धर्म न कहकर दो धर्मों का मिश्रण अवष्य कहा जा सकता है। जिसे आप वर्तमान में स्वयं ही देखकर अपने अनुभवों से जान सकते हैं क्योंकि जीवन का वास्तविक ज्ञान पुस्तकों में नहीं अपितु स्वअनुभवों में अधिक होता है।
गुरू नानक साहिब द्वारा कथित एकेष्वरवाद की इस धारणा के अनुसार अनेकों देवी-देवताओं, किसी व्यक्ति विषेष (अवतारवाद) या किसी संत-महात्मा की अराधना करना वर्जित है।
इस विषय पर दसम गुरू, गुरू गोबिन्द सिंह जी ने अपनी बाणी “बचितर नाटक” में कहा है –
जो हम को परमेसर उचरिहैं।। ते सभ नरक कुँड महि परिहैं।।
मो कौ दास तवन का जानो।। या मै भेद न रंच पछानो।।३२।।
मै हो परम पुरख को दासा।। देखन आयो जगत तमासा।।
जो प्रभ जगति कहा सो कहिहों।। मृत लोक ते मोन न रहिहों ।।३३।।
अर्थात् यदि कोई भी व्यक्ति हमें परमेष्वर जानकर हमारी आराधना करता है, तो वह सभी नर्क कुण्ड में पड़ने योग्य हैं। मुझे तो उस परम पिता परमेष्वर का दास समझो। जो इस जगत का तमाषा देख भर को आया है।
प्रेम और त्याग के संबंध में श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है -
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ।।
सिरु धरि तली गली मेरी आउ।।
इतु मारगि पैरु धरीजै।।
सिरु दीजै काणि न कीजै।।20।। गुरू ग्रंथ साहिब पृ. 1412
अर्थात यदि तुम्हें ईश्वर से प्रेम करने की चाह या इच्छा है तो अपना सिर हथेली पर रख कर आना (अपने प्राणों की चिन्ता छोड़कर आना।)। इस मार्ग पर कदम बढ़ाने के पश्चात अपना अहम (सिर) त्यागकर अन्य किसी की बातों (व्यंग्य) पर ध्यान मत देना।
मनुष्य के सुख का उपाय ईश्वर पर पूर्ण श्रृद्धा, विश्वास और प्रेम को बताया है गुरू ग्रन्थ साहिब में मानव के दुःखों के अंत का उपाय उस ईश्वर पर पूर्ण विश्वास कर उसके प्रत्येक कार्य को सहदय मानना अर्थात हुकुम में चलना बताया गया है। उसमें यह भी कहा गया है सृषिट में जो कुछ भी चल रहा है प्रत्येक उस कुल मालिक की आज्ञा से ही होता है।
जैसा के गुरूबाणी में जपुजी साहिब की दूसरी पउड़ी में स्पष्ट रूप से गुरू नानक देव जी ने कहा है-
हुकमी होवन आकार हुकमि न कहिया जाई।।
हुकमी होवन जीअ हुकमि मिलै वडियाई।।
हुकमी उत्तम नीच हुकमि लिखि दुख सुख पाईअह।।
इकना हुकमी बखसीस इक हुकमि सदा भवाइअह।।
हुकमै अंदर सभ को बाहरि हुकमि न कोई।।
नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोई।।2।।
अर्थात इस पउड़ी में गुरू साहिब कह रहे हैं कि उस कुल मालिक परमेश्वर के हुकम (इच्छा) से ही सृषिट आकार लेती है जिसे कह पाना संभव नहीं। उसकी इच्छा से ही जीव-जन्तु उत्पन्न होते हैं और उसकी ही इच्छा के फलस्वरूप वडियाई (अच्छाई) प्राप्त होती है। उसकी इच्छा से ही व्यकित उत्तम या नीच होता है, उसकी इच्छा से ही मनुष्य को दुख और सुख की प्रापित होती है। उसकी इच्छा से प्रत्येक वस्तु प्राप्त होती है। सृषिट की प्रत्येक वस्तु उसकी इच्छा के भीतर ही आती है और कुछ भी उसकी इच्छा के बाहर नहीं है। जो भी इस बात को बूझ लेता है या फिर जान लेता है फिर उसमें कोई हउमै या अहम शेष नहीं बचता।
ईश्वर के हुकुम या इच्छा के अंतर्गत संसार की सभी घटनायें निहित हैं इस पर गुरू ग्रंथ साहिब में रामायण के राम-रावण युद्ध के उस समय का वर्णन आता है जब रावण पुत्र मेघनाथ द्वारा चलाये नागपाश से मूर्छित लक्ष्मण को देख राम दुःख में थे।
राम झुरै दल मेलवै अंतरि बलु अधिकार।।
बंतर की सैना सेवीऐ मनि तनि जुझु अपारु।।
सीता लै गइआ दहसिरो लछमणु मूओ सरापि।।
नानक करता करणहारु करि वैखै थापि उथापि।।25।।
मन महि झूरै रामचंदु सीता लछमण जोगु।।
हणवंतरू अराधिआ आइआ करि संजोगु।।
भूला दैतु न समझई तिनि प्रभ कीए काम।।
नानक वेपरवाहु सो किरतु न मिटई राम।।26।। गुरू ग्रंथ साहिब पृ. 1412
अर्थात जब राम चारों ओर से दुख से घिरे थे तब उन्हें उस ईश्वर ने शकित दी। उन्हें वानरों की ऐसी सेना दी जो युद्ध हेतु अत्यन्त आतुर थी। रावण जो अत्यन्त बलशाली राजा था, सीता का हरण कर ले गया और लक्ष्मण को मूर्छित देख, राम अत्यन्त दुखपूर्ण सिथति में थे। उस समय वह करतापुरख (ईश्वर) यह सब देख रहा था। उस समय रामचन्द्र मन ही मन पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के लिए अत्यन्त दुखी थे। उस समय जब राम ने हनुमान को पुकारा तब वह ईश्वर कृपा द्वारा आये और लक्ष्मण की मूच्र्छा का उपचार संजीवनी बूटी के माध्यम से किया और यह सब जान ज्ञानी रावण तब भी न समझ सका कि यह सब उस प्रभु ने ही किया है। हे नानक! उस ईश्वर जो स्वयंभू और निशिचंत है उसकी कृपा से श्री राम के समस्त दुख दूर हुए।