सिखों की दशम बादशाही गुरु गोविन्द सिंह जी एक धार्मिक योद्धा होने के साथ-साथ एक महान कवि भी थे. वे शस्त्र तथा शास्त्र-विद्धा दोनो में समान रूप से निपुण थे और अपने दरबार में इन्होने 52 कवियों को आश्रय दिया हुआ था. गुरु ग्रंथ साहिब में ऐसे तो उनके बहुत से शब्द हैं मगर एक शब्द मुझे बड़ा प्यारा लगता है. वे लिखते हैं:
कहा भयो जो दौऊ लोचन मूंद के
बैठी रहियो बक ध्यान लगाइयो|
नाहत फिरिओ लिए सात समूदरनी
लोक गयो परलोक गवाईओ|
वास कियो बिखियान सो बैठ के
ऐसे ही ऐसे सू बैस बिताइओ|
साच कहू सुन लेहो सभै
जिन प्रेम कियो तीन ही प्रभ पाइयों|
गुरु गोविन्द सिंह जी कहते हैं कि क्या होगा बगुले की तरह आंख बंद करके ध्यान करने से. इसका मतलब यह नही है की गुरु गोविन्द सिंह जी ध्यान साधना के खिलाफ थे. लेकिन ध्यान के झूठे प्रपंच के वे खिलाफ थे. वे कहते हैं की तुम्हारे यह तीरथ-व्रत और परिक्रमा सब व्यर्थ हैं इनमे से कोई भी तुम्हे प्रभु से नही मिला पायेंगे. और तुम्हारा उँचे आसन पर बैठ कर प्रवचन और व्याख्यान देना भी व्यर्थ है.
फिर कैसे होगा प्रभु से मिलन?
गुरु कहते हैं – साच कहू सुन लेहो सभै, जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभ पाईयो| सच कहता हूँ इस बात को अच्छी तरह सुन लो कि प्रेम बिना प्रभु से मिलन नही हो सकता! लेकिन अगर सब लोग स्वभाविक रूप से प्रेम कर सकते तो यह तो बड़ा आसन होता, फिर तो सब लोग उस परमात्मा को पा लेते. प्रेम ही एक ऐसी चीज है जिसे पैदा नही किया जा सकता वह होता है तो होता है और नही होता तो नही होता.
कबीर साहब कहते हैं –
प्रेम न बाड़ी ऊपजे ,
प्रेम न हाट बिकाय |
राजा-प्रजा जेहि रुचें ,
शीश देई ले जाय ||
वे कहते हैं – प्रेम न तो पैदा किया जा सकता और न ही बाजार से खरीदा जा सकता. जिस किसी को प्रेम चाहिये वह अपना सिर् दे कर इसे ले जाये. सिर् देने से क्या अभिप्राय है कबीर साहब का? सिर् देने का अर्थ है अहंकार को छोड़ना. और अहंकार क्या है? अहंकार है अपने को इस अस्तित्व से अलग समझना, अपने को कुछ विशिष्ट समझना! यद रखना जब तक हम अपने को इस अस्तित्व से अलग मानते रहेंगे तब तक दुख और विषाद में रहेंगे! अपने को इस अस्तित्व से तोड़कर देखना संसार है और अपने को इस अस्तित्व का ही अंग समझना प्रेम है.