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एकता तिवारी के लेख

ममता का सागर

4 मई 2016
4
1

ममता का सागर गहरा है इतना |  जाऊँ जितनी गहराई में गहराता जाए वो उतना |मेरे माँ कि विशेषता बतलाऊ मैं क्या ?माँ तो सभी की विशेष होती है |अतः जिस माँ का शिशु जब जब रोता है |वो हर माँ उस शिशु के साथ रोती है |जो भूखा हो बच्चा जिस जिस भी माँ का ,वो हर माँ अपने हाथ का निवाला

आरक्षण

3 मार्च 2016
4
2

जिसने छेड़ा  हर तरफ आंदोलन है |जो दिल और दिमाग़ में छाया हर क्षण है |कत्ल कर दिया जिसने इंसानियत का ,वो कोई और नहीं आरक्षण है | फिर भी हर किसी को आरक्षण की भूख लगी है |जबकि ये आरक्षण ही कारण है, जो हर तरफ ठगी है |पर अपना ही नुकसान हमें कहा दिखता है |बेशर्म का चोला पहने इंसान को देखो, आपस में ही बिकता

छत की महत्वता

2 मार्च 2016
6
4

 छत  नहीं सिर पर  हमारे हम  बेसहारा है।  बोझ  हैं धरती का हम, हमें किसने  पुकारा है॥  जो तन पे पहनने को वस्त्र  हमें नसीब नही होते।  रात-रात भर हम कभी जागते, तो कभी सोते॥ खाने को जो ना  मिलता , तो भूख से झटपटाते। क्योंकि देखने वाला  कौन है! जिसे अपने आँसू ये दिखाते । बस सोचते रह जाते  की  हमारा  कौ

नाम के अपने

22 फरवरी 2016
4
1

जो दिल से कर लिया दूर हमें पर भूल न जाना | जिन हाथो ने आशीष दिया,उनका कुछ तो साथ निभाना || क्या पाप था ये उम्मीद रखना, कि अपने हो अपनाओगे | विचार में न आया ये कभी, घर का कोना देकर अहसान जताओगे ||बोझ समझ कर जन्म दाता को, अभिमान तुझे जिस धन का है| उस धन से तुम्हारा जन्म नहीं ,तेरे जन्म से वो धन जन्मा

सोंच वहीं है

15 फरवरी 2016
3
1

जब ज्ञान भी न था मुझे इस बात का, कि क्या बुरा और क्या भला है | मैं हो गई थी किसी की सुहागन,  छोड़ कर जा चुकी थी | मैं जहाँ खेली थी बचपन, मेरे प्यारे बाबुल का वो घर वो आँगन, चाहती थी मैं भी करना मित्रता जिन किताबो से, वो किताबे बन गई थी ख्वाब मेरा ख्वाबो में, बस जानना चाहा था इतना, मेरी इस हालत का दोष

गरीबी

9 फरवरी 2016
4
1

 है गरीब जो हम , हमें जुल्म सहना पड़ेगा |यह कहना है सबका कि जो गरीबी में जन्म लिया तो चुप तो रहना पड़ेगा ||बोलने का हक उसे है , जो पैसो में खेलता है |क्योंकि गरीबी का नाम है इंसान और अमीर देवता है ||गरीबी की मार आज सब पर जुल्म ढा रही है|भूख से  हर एक आदमी की जान जा रही है ||पर अमीर आज भगवान को  भी पैस

आशाओं के पंख

9 फरवरी 2016
4
1

ये देश अब नई दिशा की ओर चल पड़ा है।तो समाज का जन-जन लिए आँखो में सपना खड़ा  है॥है नया कुछ भी नही, फिर भी नया सब लग रहा है।आशाओं के मार्ग में हमे अब नही कोई ठग रहा है॥मन ये विचलित उड़ने को बेचैन और बेताब है।चिङियों के पंखो में भी जोश लाजवाब है॥क्यों ना थाम हाथ उस चिङियाँ का हम भी उङ चलें।और ठान ले की ना

आशाओं के पंख

9 फरवरी 2016
3
0

ये देश अब नई दिशा की ओर चल पड़ा है।तो समाज का जन-जन लिए आँखो में सपना खड़ा  है॥है नया कुछ भी नही, फिर भी नया सब लग रहा है।आशाओं के मार्ग में हमे अब नही कोई ठग रहा है॥मन ये विचलित उड़ने को बेचैन और बेताब है।चिङियों के पंखो में भी जोश लाजवाब है॥क्यों ना थाम हाथ उस चिङियाँ का हम भी उङ चलें।और ठान ले की ना

सोंच वहीं है

8 फरवरी 2016
2
1

जब ज्ञान भी न था मुझे इस बात का, कि क्या बुरा और क्या भला है | मैं हो गई थी किसी की सुहागन,  छोड़ कर जा चुकी थी | मैं जहाँ खेली थी बचपन, मेरे प्यारे बाबुल का वो घर वो आँगन, चाहती थी मैं भी करना मित्रता जिन किताबो से, वो किताबे बन गई थी ख्वाब मेरा ख्वाबो में, बस जानना चाहा था इतना, मेरी इस हालत का दोष

आशाओं के पंख

7 फरवरी 2016
7
2

ये देश अब नई दिशा की ओर चल पड़ा है।तो समाज का जन-जन लिए आँखो में सपना खड़ा  है॥है नया कुछ भी नही, फिर भी नया सब लग रहा है।आशाओं के मार्ग में हमे अब नही कोई ठग रहा है॥मन ये विचलित उड़ने को बेचैन और बेताब है।चिङियों के पंखो में भी जोश लाजवाब है॥क्यों ना थाम हाथ उस चिङियाँ का हम भी उङ चलें।और ठान ले की ना

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