जब ज्ञान भी न था मुझे इस बात का,
कि क्या बुरा और क्या भला है |
मैं हो गई थी किसी की सुहागन,
छोड़ कर जा चुकी थी |
मैं जहाँ खेली थी बचपन,
मेरे प्यारे बाबुल का वो घर वो आँगन,
चाहती थी मैं भी करना मित्रता जिन किताबो से,
वो किताबे बन गई थी ख्वाब मेरा ख्वाबो में,
बस जानना चाहा था इतना, मेरी इस हालत का दोषी कौन है?
ज्यों किसी से पूछती थी, देखती थी सब मौन है |
पर जो हुआ सो हुआ गम मुझे इसका नहीं है |
आज भी यह हो रहा है,
मेरी परेशानी की वजय बस यही है |
देश की आज हवा भी, वो नहीं रही है |
तो इसका उत्तर कौन देगा ?
कि इस सम्बन्ध में हम आज भी क्यों वहीं है |