छत नहीं सिर पर हमारे हम बेसहारा है।
बोझ हैं धरती का हम, हमें किसने पुकारा है॥
जो तन पे पहनने को वस्त्र हमें नसीब नही होते।
रात-रात भर हम कभी जागते, तो कभी सोते॥
खाने को जो ना मिलता , तो भूख से झटपटाते।
क्योंकि देखने वाला कौन है! जिसे अपने आँसू ये दिखाते ।
बस सोचते रह जाते की हमारा कौन सहारा है ?
छत नहीं सिर पर हमारे हम बेसहारा है ।
बोझ है धरती का हम, हमें किसने पुकारा है ॥
दिन कब शुरू हुआ और ढल भी कब गया ,ये जान हम ना पाते ,
पूरा दिन तो हम छत की तलाश में बिताते,
जो कुछ दो -चार गिन्नियाँ कूड़े के ढेर से खोज लाते।
उन कभी -कभी मिली गिन्नियो से हम अपनी भूख को मिटाते।
पर अफ़सोस इस हाल में भी हमें किसने स्वीकारा है ॥
छत नहीं सिर पर हमारे हम बेसहारा है ।
बोझ है धरती का हम, हमें किसने पुकारा है ॥